।।6.22।।

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।

yaṁ labdhvā chāparaṁ lābhaṁ manyate nādhikaṁ tataḥ yasmin sthito na duḥkhena guruṇāpi vichālyate

yam—which; labdhvā—having gained; cha—and; aparam—any other; lābham—gain; manyate—considers; na—not; adhikam—greater; tataḥ—than that; yasmin—in which; sthitaḥ—being situated; na—never; duḥkhena—by sorrow; guruṇā—(by) the greatest; api—even; vichālyate—is shaken

अनुवाद

।।6.22।। जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।

टीका

।।6.22।। व्याख्या--'यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः'-- मनुष्यको जो सुख प्राप्त है, उससे अधिक सुख दीखता है तो वह उसके लोभमें आकर विचलित हो जाता है। जैसे, किसीको एक घंटेके सौ रुपये मिलते हैं। अगर उतने ही समयमें दूसरी जगह हजार रुपये मिलते हों, तो वह सौ रुपयोंकी स्थितिसे विचलित हो जायगा और हजार रूपयोंकी स्थितिमें चला जायगा। निद्रा, आलस्य और प्रमादका तामस सुख प्राप्त होनेपर भी जब विषयजन्य सुख ज्यादा

अच्छा लगता है, उसमें अधिक सुख मालूम देता है, तब मनुष्य तामस सुखको छोड़कर विषयजन्य सुखकी तरफ लपककर चला जाता है। ऐसे ही जब वह विषयजन्य सुखसे ऊँचा उठता है, तब वह सात्त्विक सुखके लिये विचलित हो जाता है और जब सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठता है, तब वह आत्यन्तिक सुखके लिये विचलित हो जाता है। परन्तु जब आत्यन्तिक सुख प्राप्त हो जाता है, तो फिर वह उससे विचलित नहीं होता; क्योंकि आत्यन्तिक सुखसे बढ़कर दूसरा कोई सुख, कोई लाभ है ही नहीं। आत्यन्तिक सुखमें सुखकी हद हो जाती है। ध्यानयोगीको जब ऐसा सुख मिल जाता है, तो फिर वह इस सुखसे विचलित हो ही कैसे सकता है?