।।6.3।।

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।6.3।।

ārurukṣhor muner yogaṁ karma kāraṇam uchyate yogārūḍhasya tasyaiva śhamaḥ kāraṇam uchyate

ārurukṣhoḥ—a beginner; muneḥ—of a sage; yogam—Yog; karma—working without attachment; kāraṇam—the cause; uchyate—is said; yoga ārūḍhasya—of those who are elevated in Yog; tasya—their; eva—certainly; śhamaḥ—meditation; kāraṇam—the cause; uchyate—is said

अनुवाद

।।6.3।। जो योग-(समता-) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है।

टीका

।।6.3।। व्याख्या--'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते'--जो योग-(समता-) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये (योगारूढ़ होनेमें) निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करना कारण है। तात्पर्य है कि करनेका वेग मिटानेमें प्राप्त कर्तव्य-कर्म करना कारण है; क्योंकि कोई भी व्यक्ति जन्मा है, पला है और जीवित है तो उसका जीवन दूसरोंकी सहायताके बिना चल ही नहीं सकता। उसके पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्तक

कोई ऐसी चीज नहीं है, जो प्रकृतिकी न हो। इसलिये जबतक वह इन प्राकृत चीजोंको संसारकी सेवामें नहीं लगाता, तबतक वह योगारूढ़ नहीं हो सकता अर्थात् समतामें स्थित नहीं हो सकता; क्योंकि प्राकृत वस्तुमात्रकी संसारके साथ एकता है, अपने साथ एकता है ही नहीं। प्राकृत पदार्थोंमें जो अपनापन दीखता है, उसका तात्पर्य है कि उनको दूसरोंकी सेवामें लगानेका दायित्व हमारेपर है। अतः उन सबको दूसरोंकी सेवामें लगानेका भाव होनेसे

सम्पूर्ण क्रियाओंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जायगा और वह स्वयं योगारूढ़ हो जायगा। यही बात भगवान्ने दूसरी जगह अन्वय-व्यतिरेक रीतिसे कही है कि यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवालोंके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं अर्थात् किञ्चिन्मात्र भी बन्धनकारक नहीं होते (गीता 4। 23) और यज्ञसे अन्यत्र अर्थात् अपने लिये किये गये कर्म बन्धनकारक होते हैं (गीता 3। 9)।योगारूढ़ होनेमें कर्म कारण क्यों हैं?

क्योंकि फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें हमारी समता है या नहीं, उसका हमारेपर क्या असर पड़ता है--इसका पता तभी लगेगा, जब हम कर्म करेंगे। समताकी पहचान कर्म करनेसे ही होगी। तात्पर्य है कि कर्म करते हुए यदि हमारेमें समता रही, राग-द्वेष नहीं हुए, तब तो ठीक है; क्योंकि वह कर्म 'योग' में कारण हो गया। परन्तु यदि हमारेमें समता नहीं रही, राग-द्वेष हो गये; तो हमारा जडताके साथ सम्बन्ध होनेसे वह कर्म 'योग' में कारण नहीं बना।