।।6.38।।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति। अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।।
kachchin nobhaya-vibhraṣhṭaśh chhinnābhram iva naśhyati apratiṣhṭho mahā-bāho vimūḍho brahmaṇaḥ pathi
kachchit—whether; na—not; ubhaya—both; vibhraṣhṭaḥ—deviated from; chhinna—broken; abhram—cloud; iva—like; naśhyati—perishes; apratiṣhṭhaḥ—without any support; mahā-bāho—mighty-armed Krishna; vimūḍhaḥ—bewildered; brahmaṇaḥ—of God-realization; pathi—one on the path
अनुवाद
।।6.38।। हे महाबाहो ! संसारके आश्रयसे रहित और परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित -- इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता ?
टीका
।।6.38।। व्याख्या--[अर्जुनने पूर्वोक्त श्लोकमें कां गतिं कृष्ण गच्छति कहकर जो बात पूछी थी, उसीका इस श्लोकमें खुलासा पूछते हैं।]