।।6.44।।

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः। जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44।।

pūrvābhyāsena tenaiva hriyate hyavaśho ’pi saḥ jijñāsur api yogasya śhabda-brahmātivartate

pūrva—past; abhyāsena—discipline; tena—by that; eva—certainly; hriyate—is attracted; hi—surely; avaśhaḥ—helplessly; api—although; saḥ—that person; jijñāsuḥ—inquisitive; api—even; yogasya—about yog; śhabda-brahma—fruitive portion of the Vedas; ativartate—transcends

अनुवाद

।।6.44।। वह (श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगोंके परवश होता हुआ भी पूर्वजन्ममें किये हुए अभ्यास-(साधन-) के कारण ही परमात्माकी तरफ खिंच जाता है; क्योंकि योग-(समता-) का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है।

टीका

।।6.44।। व्याख्या--पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः--योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टको जैसी साधनकी सुविधा मिलती है, जैसा वायुमण्डल मिलता है, जैसा सङ्ग मिलता है, जैसी शिक्षा मिलती है, वैसी साधनकी सुविधा, वायुमण्डल, सङ्ग, शिक्षा आदि श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवालोंकोनहीं मिलती। परन्तु स्वर्गादि लोकोंमें जानेसे पहले मनुष्यजन्ममें जितना योगका साधन किया है, सांसारिक भोगोंका त्याग किया

है, उसके अन्तःकरणमें जितने अच्छे संस्कार पड़े हैं, उस मनुष्य-जन्ममें किये हुए अभ्यासके कारण ही भोगोंमें आसक्त होता हुआ भी वह परमात्माकी तरफ जबर्दस्ती खिंच जाता है।