।।6.5।।

उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।6.5।।

uddhared ātmanātmānaṁ nātmānam avasādayet ātmaiva hyātmano bandhur ātmaiva ripur ātmanaḥ

uddharet—elevate; ātmanā—through the mind; ātmānam—the self; na—not; ātmānam—the self; avasādayet—degrade; ātmā—the mind; eva—certainly; hi—indeed; ātmanaḥ—of the self; bandhuḥ—friend; ātmā—the mind; eva—certainly; ripuḥ—enemy; ātmanaḥ—of the self

अनुवाद

।।6.5।। अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।

टीका

।।6.5।। व्याख्या-- 'उद्धरेदात्मनात्मानम्'--अपने-आपसे अपना उद्धार करे--इसका तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिसे अपने-आपको ऊँचा उठाये। अपने स्वरूपसे जो एकदेशीय 'मैं'-पन दीखता है, उससे भी अपनेको ऊँचा उठाये। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ आदि और 'मैं'-पन--ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं; अपना स्वरूप नहीं है। जो अपना स्वरूप नहीं है, उससे अपनेको ऊँचा उठाये।अपना स्वरूप परमात्माके साथ एक है और शरीर,

इन्द्रियाँ आदि तथा 'मैं'-पन प्रकृतिके साथ एक है। अगर यह अपना उद्धार करनेमें, अपनेको ऊँचा उठानेमें शरीर इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी सहायता मानेगा, इनका सहारा लेगा तो फिर जडताका त्याग कैसे होगा? क्योंकि जड वस्तुओंसे सम्बन्ध मानना, उनकीआवश्यकता समझना उनका सहारा लेना ही खास बन्धन है। जो अपने हैं, अपनेमें हैं, अभी हैं और यहाँ हैं, ऐसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिकी आवश्यकता

नहीं है। कारण कि असत्के द्वारा सत्की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत असत्के त्यागसे सत्की प्राप्ति होती है।दूसरा भाव, अभी पूर्वश्लोकमें आया है कि प्राकृत पदार्थ, क्रिया और संकल्पमें आसक्त न हो, उनमें फँसे नहीं, प्रत्युत उनसे अपने-आपको ऊपर उठाये। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पदार्थ, क्रिया और संकल्पका आरम्भ तथा अन्त होता है, उनका संयोग तथा वियोग होता है, पर अपने (स्वयंके) अभावका और परिवर्तनका अनुभव किसीको

नहीं होता। स्वयं सदा एकरूप रहता है। अतः उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ आदिमें न फँसना, उनके अधीन न होना, उनसे निर्लिप्त रहना ही अपना उद्धार करना है। मनुष्यमात्रमें एक ऐसी विचारशक्ति है, जिसको काममें लानेसे वह अपना उद्धार कर सकता है। 'ज्ञानयोग'का साधक उस विचारशक्तिसे जड-चेतनका अलगाव करके चेतन (अपने स्वरूप) में स्थित हो जाता है और जड (शरीर-संसार) से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है। 'भक्तियोग' का साधक उसी

विचारशक्तिसे 'मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं' इस प्रकार भगवान्से आत्मीयता करके अपना उद्धार कर लेता है। 'कर्मयोग' का साधक उसी विचारशक्तिसे मिले हुए शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि पदार्थोंको संसारका ही मानते हुए संसारकी सेवामें लगाकर उन पदार्थोंमें सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है और अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। इस दृष्टिसे मनुष्य अपनी विचारशक्तिको काममें लेकर किसी भी योग-मार्गसे अपना कल्याण कर सकता है।