।।7.17।।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्ितर्विशिष्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।7.17।।
teṣhāṁ jñānī nitya-yukta eka-bhaktir viśhiṣhyate priyo hi jñānino ’tyartham ahaṁ sa cha mama priyaḥ
teṣhām—amongst these; jñānī—those who are situated in knowledge; nitya-yuktaḥ—ever steadfast; eka—exclusively; bhaktiḥ—devotion; viśhiṣhyate—highest; priyaḥ—very dear; hi—certainly; jñāninaḥ—to the person in knowledge; atyartham—highly; aham—I; saḥ—he; cha—and; mama—to me; priyaḥ—dear
अनुवाद
।।7.17।। उन चार भक्तोंमें मेरेमें निरन्तर लगा हुआ, अनन्यभक्तिवाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानी भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरेको अत्यन्त प्रिय है।
टीका
।।7.17।। व्याख्या--'तेषां ज्ञानी नित्ययुक्तः' उन (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) भक्तोंमें ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है; क्योंकि वह नित्ययुक्त है अर्थात् वह सदा-सर्वदा केवल भगवान्में ही लगा रहता है। भगवान्के सिवाय दूसरे किसीमें वह किञ्चिन्मात्र भी नहीं लगता। जैसे गोपियाँ गाय दुहते, दही बिलोते, धान कूटते आदि सभी लौकिक कार्य करते हुए भी भगवान् श्रीकृष्णमें चित्तवाली रहती हैं (टिप्पणी
प0 420.2), ऐसे ही वह ज्ञानी भक्त लौकिक और पारमार्थिक सब क्रियाएँ करते समय सदा-सर्वदा भगवान्से जुड़ा रहता है। भगवान्का सम्बन्ध रखते हुए ही उसकी सब क्रियाएँ होती हैं।