।।7.3।।

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्िचद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्िचन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।7.3।।

manuṣhyāṇāṁ sahasreṣhu kaśhchid yatati siddhaye yatatām api siddhānāṁ kaśhchin māṁ vetti tattvataḥ

manuṣhyāṇām—of men; sahasreṣhu—out of many thousands; kaśhchit—someone; yatati—strives; siddhaye—for perfection; yatatām—of those who strive; api—even; siddhānām—of those who have achieved perfection; kaśhchit—someone; mām—me; vetti—knows; tattvataḥ—in truth

अनुवाद

।।7.3।। हजारों मनुष्योंमें कोई एक वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धोंमें कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है।

टीका

।।7.3।। व्याख्या--'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये'--(टिप्पणी प0 395.1) 'हजारों मनुष्योंमें' कोई एक ही मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है। तात्पर्य है कि जिनमें मनुष्यपना है अर्थात् जिनमें पशुओंकी तरह खाना-पीना और ऐश-आराम करना नहीं है, वे ही वास्तवमें मनुष्य हैं। उन मनुष्योंमें भी जो नीति और धर्मपर चलनेवाले हैं, ऐसे मनुष्य हजारों हैं। उन हजारों मनुष्योंमें भी कोई एक ही सिद्धिके लिये (टिप्पणी

प0 395.2) यत्न करता है अर्थात् जिससे बढ़कर कोई लाभ नहीं, जिसमें दुःखका लेश भी नहीं और आनन्दकी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं, कमीकी सम्भावना ही नहीं--ऐसे स्वतःसिद्ध नित्यतत्त्वकी प्राप्तिके लिये यत्न करता है।जो परलोकमें स्वर्ग आदिकी प्राप्ति नहीं चाहता और इस लोकमें धन, मान, भोग, कीर्ति आदि नहीं चाहता अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंमें नहीं अटकता और भोगे हुए भोगोंके तथा मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिके

संस्कार रहनेसे उन विषयोंका सङ्ग होनेपर, उन विषयोंमें रुचि होते रहनेपर भी जो अपनी मान्यता, उद्देश्य, विचार, सिद्धान्त आदिसे विचलित नहीं होता--ऐसा कोई एक पुरुष ही सिद्धिके लिये यत्न करता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धिके लिये यत्न करनेवाले अर्थात् दृढ़तासे उधर लगनेवाले बहुत कम मनुष्य होते हैं।परमात्मप्राप्तिकी तरफ न लगनेमें कारण है--भोग और संग्रहमें लगना। सांसारिक भोग-पदार्थोंमें

केवल आरम्भमें ही सुख दीखता है। मनुष्य प्रायः तत्काल सुख देनेवाले साधनोंमें ही लगते हैं। उनका परिणाम क्या होगा--इसपर वे विचार करते ही नहीं। अगर वे भोग और ऐश्वर्यके परिणामपर विचार करने लग जायँ कि 'भोग और संग्रहके अन्तमें कुछ नहीं मिलेगा, रीते रह जायँगे और उनकी प्राप्तिके लिये किये हुए पाप-कर्मोंके फलस्वरूप चौरासी लाख योनियों तथा नरकोंके रूपमें दुःख-ही-दुख मिलेगा', तो वे परमात्माके साधनमें लग जायँगे।

दूसरा कारण यह है कि प्रायः लोग सांसारिक भोगोंमें ही लगे रहते हैं। उनमेंसे कुछ लोग संसारके भोगोंसे ऊँचे उठते भी हैं तो वे परलोकके स्वर्ग आदि भोग-भूमियोंकी प्राप्तिमें लग जाते हैं। परन्तु अपना कल्याण हो जाय, परमात्माकी प्राप्ति हो जाय--ऐसा दृढ़तासे विचार करके परमात्माकी तरफ लगनेवाले लोग बहुत कम होते हैं। इतिहासमें भी देखते हैं तो सकामभावसे तपस्या आदि साधन करनेवालोंके ही चरित्र विशेष आते हैं। कल्याणके

लिये तत्परतासे साधन करनेवालोंके चरित्र बहुत ही कम आते हैं।वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत इधर सच्ची लगनसे तत्परतापूर्वक लगनेवाले बहुत कम हैं। इधर दृढ़तासे न लगनेमें संयोगजन्य सुखकी तरफ आकृष्ट होना और परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये भविष्यकी आशा (टिप्पणी प0 395.3) रखना ही खास कारण है। 'यततामपि सिद्धानाम्' (टिप्पणी प0 395.4)--यहाँ 'सिद्ध' शब्दसे उनको लेना चाहिये,

जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है और जो केवल एक भगवान्में ही लग गये हैं। उन्हींको गीतामें 'महात्मा' कहा गया है। यद्यपि 'सब कुछ परमात्मा ही है' ऐसा जाननेवाले तत्त्वज्ञ पुरुषको भी (7। 19में) महात्मा कहा गया है, तथापि यहाँ तो वे ही महात्मा साधक लेने चाहिये, जो आसुरी सम्पत्तिसे रहित होकर केवल दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेकर अनन्यभावसे भगवान्का भजन करते हैं (गीता 9। 13)। इसका कारण यह है कि वे यत्न करते हैं--'यतताम्।'इसलिये

यहाँ (7। 19 में वर्णित) तत्त्वज्ञ महात्माको नहीं लेना चाहिये।यहाँ 'यतताम्'पदका तात्पर्य मात्र बाह्य चेष्टाओंसे नहीं है। इसका तात्पर्य है--भीतरमें केवल परमात्मप्राप्तिकी उत्कट उत्कण्ठा लगना, स्वाभाविक ही लगन होना और स्वाभाविक ही आदरपूर्वक उन परमात्माका चिन्तन होना। 'कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः'--ऐसे यत्न करनेवालोंमें कोई एक ही मेरेको तत्त्वसे जानता है। यहाँ 'कोई एक ही जानता है' ऐसा कहनेका यह बिलकुल

तात्पर्य नहीं है कि यत्न करनेवाले सब नहीं जानेंगे, प्रत्युत यहाँ इसका तात्पर्य है कि प्रयत्नशील साधकोंमें वर्तमान समयमें कोई एक ही तत्त्वको जाननेवाला मिलता है। कारण कि कोई एक ही उस तत्त्वको जानता है और वैसे ही दूसरा कोई एक ही उस तत्त्वका विवेचन करता है--'आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः'(गीता 2। 29)। यहाँ 'तथैव चान्यः'(वैसे ही दूसरा कोई) कहनेका तात्पर्य न जाननेवाला नहीं है; क्योंकि

जो नहीं जानता है, वह क्या कहेगा और कैसे कहेगा? अतः 'दूसरा कोई' कहनेका तात्पर्य है कि जाननेवालोंमेंसे कोई एक उसका विवेचन करनेवाला होता है। दूसरे जितने भी जानकार हैं, वे स्वयं तो जानते हैं, पर विवेचन करनेमें, दूसरोंको समझानेमें वे सब-के-सब समर्थ नहीं होते।प्रायः लोग इस (तीसरे) श्लोकको तत्त्वकी कठिनता बतानेवाला मानते हैं। परन्तु वास्तवमें यह श्लोक तत्त्वकी कठिनताके विषयमें नहीं है; क्योंकि परमात्म-तत्त्वकी

प्राप्ति कठिन नहीं है, प्रत्युत तत्त्वप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा होना और अभिलाषाकी पूर्तिके लिये तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंका मिलना दुर्लभ है, कठिन है। यहाँ भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि 'मैं कहूँगा और तू जानेगा,' तो अर्जुन-जैसा अपने श्रेयका प्रश्न करनेवाला और भगवान-जैसा सर्वज्ञ कहनेका मिलना दुर्लभ है। वास्तवमें देखा जाय तो केवल उत्कट अभिलाषा होना ही दुर्लभ है। कारण कि अभिलाषा होनेपर उसको जाननेकी

जिम्मेवारी भगवान्पर आ जाती है।यहाँ तत्त्वतः कहनेका तात्पर्य है कि वह मेरे सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य, विष्णु आदि रूपोंमें प्रकट होनेवाले और समय-समयपर तरह-तरहके अवतार लेनेवाले मुझको तत्त्वसे जान लेता है अर्थात् उसके जाननेमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता और उसके अनुभवमें एक परमात्मतत्त्वके सिवाय संसारकी किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती।  सम्बन्ध-- दूसरे श्लोकमें भगवान्ने ज्ञान-विज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा की थी। उस प्रतिज्ञाके अनुसार अब भगवान् ज्ञान-विज्ञान कहनेका उपक्रम करते हैं।