रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः। प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8।।
raso ’ham apsu kaunteya prabhāsmi śhaśhi-sūryayoḥ praṇavaḥ sarva-vedeṣhu śhabdaḥ khe pauruṣhaṁ nṛiṣhu
Word Meanings
अनुवाद
।।7.8।। हे कुन्तीनन्दन ! जलोंमें रस मैं हूँ, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ, सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार) मैं हूँ, आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषार्थ मैं हूँ।
टीका
।।7.8।। व्याख्या--[जैसे साधारण दृष्टिसे लोगोंने रुपयोंको ही सर्वश्रेष्ठ मान रखा है तो रुपये पैदा करने और उनका संग्रह करनेमें लोभी आदमीकी स्वाभाविक रुचि हो जाती है। ऐसे ही देखने, सुनने, मानने और समझनेमें जो कुछ जगत् आता है उसका कारण भगवान् हैं (7। 6); भगवान्के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं-- ऐसा माननेसे भगवान्में स्वाभाविक रुचि हो जाती है। फिर स्वाभाविक ही उनका भजन होता है। यही बात दसवें अध्यायके
आठवें श्लोकमें कही है कि 'मैं सम्पूर्ण संसारका कारण हूँ, मेरेसे ही संसारकी उत्पत्ति होती है,--ऐसा समझकर बुद्धिमान् मनुष्य मेरा भजन करते हैं। ऐसे ही अठारहवें अध्यायके छियालीसवें श्लोकमें कहा है कि 'जिस परमात्मासे सम्पूर्ण जगत्की प्रवृत्ति होती है और जिससे सारा संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मोंके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त कर लेता है।' इसी सिद्धान्तको बतानेके लिये यह प्रकरण आया
है।] 'रसोऽहमप्सु कौन्तेय'--हे कुन्तीनन्दन ! जलोंमें मैं 'रस' हूँ। जल रस-तन्मात्रासे (टिप्पणी प0 403) पैदा होता है; रस-तन्मात्रामें रहता है और रस-तन्मात्रामें ही लीन होता है। जलमेंसे अगर 'रस' निकाल दिया जाय तो जलतत्त्व कुछ नहीं रहेगा। अतः रस ही जलरूपसे है। वह रस मैं हूँ। 'प्रभास्मि शशिसूर्ययोः'--चन्द्रमा और सूर्यमें प्रकाश करनेकी जो एक विलक्षण शक्ति 'प्रभा' है (टिप्पणी प0 404), वह मेरा स्वरूप है।
प्रभा रूप-तन्मात्रासे उत्पन्न होती है रूपतन्मात्रामें रहती है और अन्तमेंरूपतन्मात्रामें ही लीन हो जाती है। अगर चन्द्रमा और सूर्यमेंसे प्रभा निकाल दी जाय तो चन्द्रमा और सूर्य निस्तत्त्व हो जायँगे। तात्पर्य है कि केवल प्रभा ही चन्द्र और सूर्यरूपसे प्रकट हो रही है। भगवान् कहते हैं कि वह प्रभा भी मैं ही हूँ।