।।8.11।।

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।8.11।।

yad akṣharaṁ veda-vido vadanti viśhanti yad yatayo vīta-rāgāḥ yad ichchhanto brahmacharyaṁ charanti tat te padaṁ saṅgraheṇa pravakṣhye

yat—which; akṣharam—Imperishable; veda-vidaḥ—scholars of the Vedas; vadanti—describe; viśhanti—enter; yat—which; yatayaḥ—great ascetics; vīta-rāgāḥ—free from attachment; yat—which; ichchhantaḥ—desiring; brahmacharyam—celibacy; charanti—practice; tat—that; te—to you; padam—goal; saṅgraheṇa—briefly; pravakṣhye—I shall explain

अनुवाद

।।8.11।। वेदवेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं, वीतराग यति जिसको प्राप्त करते हैं और साधक जिसकी प्राप्तिकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, वह पद मैं तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा।

टीका

।।8.11।। व्याख्या--[सातवें अध्यायके उनतीसवें श्लोकमें जो निर्गुण-निराकार परमात्माका वर्णन हुआ था, उसीको यहाँ ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकमें विस्तारसे कहा गया है।]