।।8.23।।
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः। प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।8.23।।
yatra kāle tvanāvṛittim āvṛittiṁ chaiva yoginaḥ prayātā yānti taṁ kālaṁ vakṣhyāmi bharatarṣhabha
yatra—where; kāle—time; tu—certainly; anāvṛittim—no return; āvṛittim—return; cha—and; eva—certainly; yoginaḥ—a yogi; prayātāḥ—having departed; yānti—attain; tam—that; kālam—time; vakṣhyāmi—I shall describe; bharata-ṛiṣhabha—Arjun, the best of the Bharatas;
अनुवाद
।।8.23।। हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! जिस काल अर्थात् मार्गमें शरीर छोड़कर गये हुए योगी अनावृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर नहीं आते और (जिस मार्गमें गये हुए) आवृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर आते हैं, उस कालको अर्थात् दोनों मार्गोंको मैं कहूँगा।
टीका
।।8.23।। व्याख्या --[जीवित अवस्थामें ही बन्धनसे छूटनेको 'सद्योमुक्ति' कहते हैं अर्थात् जिनको यहाँ ही भगवत्प्राप्ति हो गयी, भगवान्में अनन्यभक्ति हो गयी, अनन्यप्रेम हो गया, वे यहाँ ही परम संसिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं। दूसरे जो साधक किसी सूक्ष्म वासनाके कारण ब्रह्मलोकमें जाकर क्रमशः ब्रह्माजीके साथ मुक्त हो जाते हैं, उनकी मुक्तिको 'क्रममुक्ति' कहते हैं। जो केवल सुख भोगनेके लिये ब्रह्मलोक आदि लोकोंमें
जाते हैं, वे फिर लौटकर आते हैं। इसको 'पुनरावृत्ति' कहते हैं। सद्योमुक्तिका वर्णन तो पंद्रहवें श्लोकमें हो गया, पर क्रममुक्ति और पुनरावृत्तिका वर्णन करना बाकी रह गया। अतः इन दोनोंका वर्णन करनेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण आरम्भ करते हैं।]