।।8.5।।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।8.5।।
anta-kāle cha mām eva smaran muktvā kalevaram yaḥ prayāti sa mad-bhāvaṁ yāti nāstyatra sanśhayaḥ
anta-kāle—at the time of death; cha—and; mām—me; eva—alone; smaran—remembering; muktvā—relinquish; kalevaram—the body; yaḥ—who; prayāti—goes; saḥ—he; mat-bhāvam—Godlike nature; yāti—achieves; na—no; asti—there is; atra—here; sanśhayaḥ—doubt
अनुवाद
।।8.5।। जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।
टीका
।।8.5।। व्याख्या--'अन्तकाले च' 'मामेव ৷৷. याति नास्त्यत्र संशयः'-- अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए जो शरीर छोड़कर जाता है -- इसका तात्पर्य हुआ कि इस मनुष्यको जीवनमें साधनभजन करके अपना उद्धार करनेका अवसर दिया था पर इसने कुछ किया ही नहीं। अब बेचारा यह मनुष्य अन्तकालमें दूसरा साधन करनेमें असमर्थ है इसलिये बस मेरेको याद कर ले तो इसको मेरी प्राप्ति हो जायगी।'मामेव स्मरन्' का तात्पर्य है कि सुनने समझने
और माननेमें जो कुछ आता है वह सब मेरा समग्ररूप है। अतः जो उसको मेरा ही स्वरूप मानेगा उसको अन्तकालमें भी मेरा ही चिन्तन होगा अर्थात् उसने जब सब कुछ मेरा ही स्वरूप मान लिया तो अन्तकालमें उसको जो कुछ याद आयेगा वह मेरा ही स्वरूप होगा इसलिये वह स्मरण मेरा ही होगा। मेरा स्मरण होनेसे उसको मेरी ही प्राप्ति होगी।'मद्भावम्' कहनेका तात्पर्य है कि साधकने मेरेको जिसकिसी भिन्न अथवा अभिन्न भावसे अर्थात् सगुणनिर्गुण
साकारनिराकार द्विभुजचतुर्भुज तथा नाम लीला धाम रूप आदिसे स्वीकार किया है मेरी उपासना की है अन्तसमयके स्मरणके अनुसार वह मेरे उसी भावको प्राप्त होता है। जो भगवान्की उपासना करते हैं वे तो अन्तसमयमें उपास्यका स्मरण होनेसे उसी उपास्यको अर्थात् भगवद्भावको प्राप्त होते हैं। परन्तु जो उपासना नहीं करते उनको भी अन्तसमयमें किसी कारणवशात् भगवान्के किसी नाम रूप लीला धाम आदिका स्मरण हो जाय तो वे भी उन उपासकोंकी
तरह उसी भगवद्भावको प्राप्त हो जाते हैं। तात्पर्य है कि जैसे गुणोंमें स्थित रहनेवालेकी (गीता 14। 18) और अन्तकालमें जिसकिसी गुणके बढ़नेवालेकी वैसी ही गति होती है (गीता 14। 14 15) ऐसे ही जिसको अन्तमें भगवान् याद आ जाते हैं उसकी भी उपासकोंकी तरह गति होती है अर्थात् भगवान्की प्राप्ति होती है।भगवान्के सगुणनिर्गुण साकारनिराकार आदि अनेक रूपोंका और नाम लीला धाम आदिका भेद तो साधकोंकी दृष्टिसे है अन्तमें सब
एक हो जाते हैं अर्थात् अन्तमें सब एक मद्भाव -- भगवद्भावको प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि भगवान्का समग्र स्वरूप एक ही है। परन्तु गुणोंके अनुसार गतिको प्राप्त होनेवाले अन्तमें एक नहीं हो सकते क्योंकि तीनों गुण (सत्त्व रज तम) अलगअलग हैं। अतः गुणोंके अनुसार उनकी गतियाँ भी अलगअलग होती हैं।भगवान्का स्मरण करके शरीर छोड़नेवालोंका तो भगवान्के साथ सम्बन्ध रहता है और गुणोंके अनुसार शरीर छोड़नेवालोंका गुणोंके साथ
सम्बन्ध रहता है। इसलिये अन्तमें भगवान्का स्मरण करनेवाले भगवान्के सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् भगवान्को प्राप्त हो जाते हैं और गुणोंसे सम्बन्ध रखनेवाले गुणोंके सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् गुणोंके कार्य जन्ममरणको प्राप्त हो जाते हैं।भगवान्ने एक यह विशेष छूट दी हुई है कि मरणासन्न व्यक्तिके कैसे ही आचरण रहे हों कैसे ही भाव रहे हों किसी भी तरहका जीवन बीता हो पर अन्तकालमें वह भगवान्को याद कर ले तो उसका कल्याण
हो जायगा। कारण कि भगवान्ने जीवका कल्याण करनेके लिये ही उसको मनुष्यशरीर दिया है और जीवने उस मनुष्यशरीरको स्वीकार किया है। अतः जीवका कल्याण हो जाय तभी भगवान्का इस जीवको मनुष्यशरीर देना और जीवका मनुष्यशरीर लेना सफल होगा। परन्तु वह अपना उद्धार किये बिना ही आज दुनियासे विदा हो रहा है इसके लिये भगवान् कहते हैं कि भैया तेरी और मेरी दोनोंकी इज्जत रह जाय इसलिये अब जातेजाते (अन्तकालमें) भी तू मेरेको याद कर
ले तो तेरा कल्याण हो जाय अतः हरेक मनुष्यके लिये सावधान होनेकी जरूरत है कि वह सब समयमें भगवान्का स्मरण करे कोई समय खाली न जाने दे क्योंकि अन्तकालका पता नहीं है कि कब आ जाय। वास्तवमें सब समय अन्तकाल ही है। यह बात तो है नहीं कि इतने वर्ष इतने महीने और इतने दिनोंके बाद मृत्यु होगी। देखनेमें तो यही आता है कि गर्भमें ही कई बालक मर जाते हैं कई जन्मते ही मर जाते हैं कई कुछ दिनोंमें महीनोंमें वर्षोंमें मर
जाते हैं। इस प्रकार मरनेकी चाल हरदम चल ही रही है। अतः सब समयमें भगवान्को याद रखना चाहिये और यही समझना चाहिये कि बस यही अन्तकाल है नीतिमें यह बात आती है कि अगर धर्मका आचरण करना हो कल्याण करना हो तो मृत्युने मेरे केश पकड़े हुए हैं झटका दिया कि खत्म ऐसा विचार हरदम रहना चाहिये -- 'गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्'। भगवान्की उपर्युक्त छूटसे मनुष्यमात्रको विशेष लाभ लेना चाहिये। कहीं कोई भी व्याधिग्रस्त
मरणासन्न व्यक्ति हो तो उसके इष्टके चित्र या मूर्तिको उसे दिखाना चाहिये जैसी उसकी उपासना है और जिस भगवन्नाममें उसकी रुचि हो जिसका वह जप करता हो वही भगवन्नाम उसको सुनाना चाहिये जिस स्वरूपमें उसकी श्रद्धा और विश्वास हो उसकी याद दिलानी चाहिये भगवान्की महिमाका वर्णन करना चाहिये गीताके श्लोक सुनाने चाहिये। अगर वह बेहोश हो जाय तो उसके पास भगवन्नामका जपकीर्तन करना चाहिये जिससे उस मरणासन्न व्यक्तिके सामने
भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल बना रहे। भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल रहनेसे वहाँ यमराजके दूत नहीं आ सकते। अजामिलके द्वारा मृत्युके समय नारायण नामका उच्चारण करनेसे,वहाँ भगवान्के पार्षद आ गये और यमदूत भागकर यमराजके पासमें गये तो यमराजने अपने दूतोंसे कहा कि जहाँ भगवन्नामका जप कीर्तन कथा आदि होते हों वहाँ तुमलोग कभी मत जाना क्योंकि वहाँ हमारा राज्य नहीं है (टिप्पणी प0 455.1)। ऐसा कहकर यमराजने भगवान्का स्मरण करके
भगवान्से क्षमा माँगी कि मेरे दूतोंके द्वारा जो अपराध हुआ है उसको आप क्षमा करें (टिप्पणी प0 455.2)। अन्तकालमें स्मरणका तात्पर्य है कि उसने भगवान्का जो स्वरूप मान रखा है उसकी याद आ जाय अर्थात् उसने पहले राम कृष्ण विष्णु शिव शक्ति गणेश सूर्य सर्वव्यापक विश्वरूप परमात्मा आदिमेंसे जिस स्वरूपको मान रखा है उस स्वरूपके नाम रूप लीला धाम गुण प्रभाव आदिकी याद आ जाय। उसकी याद करते हुए शरीरको छोड़कर जानेसे वह
भगवान्को ही प्राप्त होता है। कारण कि भगवान्की याद आनेसे मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा है -- इसकी याद नहीं रहती प्रत्युत केवल भगवान्को ही याद करते हुए शरीर छूट जाता है। इसलिये उसके लिये भगवान्को प्राप्त होनेके अतिरिक्त और कोई गुंजाइश ही नहीं है। यहाँ शङ्का होती है कि जिस व्यक्तिने उम्रभरमें भजनस्मरण नहीं किया कोई साधन नहीं किया सर्वथा भगवान्से विमुख रहा उसको अन्तकालमें भगवान्का स्मरण कैसे होगा और उसका
कल्याण कैसे होगा इसका समाधान है कि अन्तसमयमें उसपर भगवान्की कोई विशेष कृपा हो जाय अथवा उसको किसी सन्तके दर्शन हो जायँ तो भगवान्का स्मरण होकर उसका कल्याण हो जाता है। उसके कल्याणके लिये कोई साधक उसको भगवान्का नाम लीला चरित्र सुनाये पद गाये तो भगवान्का स्मरण होनेसे उसका कल्याण हो जाता है। अगर मरणासन्न व्यक्तिको गीतामें रुचि हो तो उसको गीताका आठवाँ अध्याय सुनाना चाहिये क्योंकि इस अध्यायमें जीवकी सद्गतिका
विशेषतासे वर्णन आया है। इसको सुननेसे उसको भगवान्की स्मृति हो जाती है। कारण कि वास्तवमें परमात्माका ही अंश होनेसे उसका परमात्माके साथ स्वतः सम्बन्ध है ही। अगर अयोध्या मथुरा हरिद्वार काशी आदि किसी तीर्थस्थलमें उसके प्राण छूट जायँ तो उस तीर्थके प्रभावसे उसको भगवान्की स्मृति हो जायगी (टिप्पणी प0 456.1)। ऐसे ही जिस जगह भगवान्के नामका जप कीर्तन कथा सत्संग आदि होता है उस जगह उसकी मृत्यु हो जाय तो वहाँके
पवित्र वायुमण्डलके प्रभावसे उसको भगवान्की स्मृति हो सकती है। अन्तकालमें कोई भयंकर स्थिति आनेसे भयभीत होनेपर भी भगवान्की याद आ सकती है। शरीर छूटते समय शरीर कुटुम्ब रुपये आदिकी आशाममता छूट जाय और यह भाव हो जाय कि हे नाथ आपके बिना मेरा कोई नहीं है केवल आप ही मेरे हैं तो भगवान्की स्मृति होनेसे कल्याण हो जाता है। ऐसे ही किसी कारणसे अचानक अपने कल्याणका भाव बन जाय तो भी कल्याण हो सकता है (टिप्पणी प0 456.2)।
ऐसे ही कोई साधक किसी प्राणी जीवजन्तुके मृत्युसमयमें उसका कल्याण हो जाय इस भावसे उसको भगवन्नाम सुनाता है तो उस भगवन्नामके प्रभावसे उस प्राणीका कल्याण हो जाता है। शास्त्रोंमें तो सन्तमहापुरुषोंके प्रभावकी विचित्र बातें आती हैं कि यदि सन्तमहापुरुष किसी मरणासन्न व्यक्तिको देख लें अथवा उसके मृत शरीर(मुर्दे) को देख लें अथवा उसकी चिताके धुएँको देख लें अथवा चिताकी भस्मको देख लें तो भी उस जीवका कल्याण हो जाता है (टिप्पणी प0 456.3)