।।9.20।।

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।9.20।।

trai-vidyā māṁ soma-pāḥ pūta-pāpā yajñair iṣhṭvā svar-gatiṁ prārthayante te puṇyam āsādya surendra-lokam aśhnanti divyān divi deva-bhogān

trai-vidyāḥ—the science of karm kāṇḍ (Vedic Rituals); mām—me; soma-pāḥ—drinkers of the Soma juice; pūta—purified; pāpāḥ—sins; yajñaiḥ—through sacrifices; iṣhṭvā—worship; svaḥ-gatim—way to the abode of the king of heaven; prārthayante—seek; te—they; puṇyam—pious; āsādya—attain; sura-indra—of Indra; lokam—abode; aśhnanti—enjoy; divyān—celestial; divi—in heaven; deva-bhogān—the pleasures of the celestial gods

अनुवाद

।।9.20।। वेदत्रयीमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा इन्द्ररूपसे मेरा पूजन करके स्वर्ग-प्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे पुण्यके फलस्वरूप इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गमें देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।

टीका

।।9.20।। व्याख्या--'त्रैविद्याः मां सोमपाः ৷৷. दिव्यान्दिवि देवभागान्'--संसारके मनुष्य प्रायः यहाँके भोगोंमें ही लगे रहते हैं उनमें जो भी विशेष बुद्धिमान् कहलाते हैं, उनके हृदयमें भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व रहनेके कारण जब वे ऋक्, साम और यजुः -- इन तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका तथा उनके फलका वर्णन सुनते हैं, तब वे (वेदोंमें आस्तिकभाव होनेके कारण) यहाँके भोगोंकी इतनी परवाह न करके

स्वर्गके भोगोंके लिये ललचा उठते हैं और स्वर्गप्राप्तिके लिये वेदोंमें कहे हुए यज्ञोंके अनुष्ठानमें लग जाते हैं। ऐसे मनुष्योंके लिये ही यहाँ 'त्रैविद्याः' पद आया है। सोमलता अथवा सोमवल्ली नामकी एक लता होती है। उसके विषयमें शास्त्रमें आता है कि जैसे शुक्लपक्षमें प्रतिदिन चन्द्रमाकी एक-एक कला बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमाको कलाएँ पूर्ण हो जाती हैं और कृष्णपक्षमें प्रतिदिन एक-एक कला क्षीण होते-होते अमावस्याको

कलाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं ऐसे ही उस सोमलताका भी शुक्लपक्षमें प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकलते-निकलते पूर्णिमातक पंद्रह पत्ते निकल आते हैं और कृष्णपक्षमें प्रतिदिन एक-एक पत्ता गिरते-गिरते अमावस्यातक पूरे पत्ते गिर जाते हैं (टिप्पणी प0 506)। उस सोमलताके रसको सोमरस कहते हैं। यज्ञ करनेवाले उस सोमरसको वैदिक मन्त्रोंके द्वारा अभिमन्त्रित करके पीते हैं, इसलिये उनको 'सोमपाः' कहा गया है।