।।9.31।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।।
kṣhipraṁ bhavati dharmātmā śhaśhvach-chhāntiṁ nigachchhati kaunteya pratijānīhi na me bhaktaḥ praṇaśhyati
kṣhipram—quickly; bhavati—become; dharma-ātmā—virtuous; śhaśhvat-śhāntim—lasting peace; nigachchhati—attain; kaunteya—Arjun, the son of Kunti; pratijānīhi—declare; na—never; me—my; bhaktaḥ—devotee; praṇaśhyati—perishes
अनुवाद
।।9.31।। वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन ! तुम प्रतिज्ञा करो कि मेरे भक्तका विनाश (पतन) नहीं होता।
टीका
।।9.31।। व्याख्या --'क्षिप्रं भवति धर्मात्मा'-- वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है अर्थात् महान् पवित्र हो जाता है। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्माका अंश है और जब इसका उद्देश्य भी परमात्माकी प्राप्ति करना हो गया तो अब उसके धर्मात्मा होनेमें क्या देरी लगेगी? अब वह पापात्मा कैसे रहेगा? क्योंकि वह धर्मात्मा तो स्वतः था ही, केवल संसारके सम्बन्धके कारण उसमें पापात्मापन आया था, जो कि आगन्तुक था। अब जब अहंता बदलनेसे
संसारका सम्बन्ध नहीं रहा, तो वह ज्यों-का-त्यों (धर्मात्मा) रह गया।यह जीव जब पापात्मा नहीं बना था, तब भी पवित्र था और जब पापात्मा बन गया, तब भी वैसा ही पवित्र था। कारण कि परमात्माका अंश होनेसे जीव सदा ही पवित्र है। केवल संसारके सम्बन्धसे वह पापात्मा बना था। संसारका सम्बन्ध छूटते ही वह ज्योंकात्यों पवित्र रह गया।