Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। मातुलाः श्चशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।1.34।। एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।1.35।।

āchāryāḥ pitaraḥ putrās tathaiva cha pitāmahāḥ mātulāḥ śhvaśhurāḥ pautrāḥ śhyālāḥ sambandhinas tathā etān na hantum ichchhāmi ghnato ’pi madhusūdana api trailokya-rājyasya hetoḥ kiṁ nu mahī-kṛite

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Word Meanings

āchāryāḥteachers
pitaraḥfathers
putrāḥsons
tathāas well
evaindeed
chaalso
pitāmahāḥgrandfathers
mātulāḥmaternal uncles
śhvaśhurāḥfathers-in-law
pautrāḥgrandsons
śhyālāḥbrothers-in-law
sambandhinaḥkinsmen
tathāas well
etānthese
nanot
hantumto slay
ichchhāmiI wish
ghnataḥkilled
apieven though
madhusūdanaShree Krishna, killer of the demon Madhu
apieven though
trai-lokya-rājyasyadominion over three worlds
hetoḥfor the sake of
kim nuwhat to speak of
mahī-kṛitefor the earth
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अनुवाद

।।1.34 -- 1.35।। (टिप्पणी प0 24.1) आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, मुझ पर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो, तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो (मैं इनको मारूँ ही) क्या? ।।1.34 -- 1.35।। (टिप्पणी प0 24.1) आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, मुझपर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो, तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वीके लिये तो (मैं इनको मारूँ ही) क्या?

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टीका

।।1.34।। व्याख्या --[भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ--ये तीनों ही नरकके द्वार हैं। वास्तवमें एक कामके ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामनाकी दो तरहकी क्रियाएँ होती हैं--इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति। इनमेंसे इष्टकी प्राप्ति भी दो तरहकी होती है --संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रहकी

इच्छाका नाम 'लोभ' है और सुखभोगकी इच्छाका नाम 'काम' है। अनिष्टकी निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर 'क्रोध' आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंपर अथवा हमारा अनिष्ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है, जिससे अनिष्ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती है --अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने 'क्रोध' को

सफल बनानेके लिये और इष्टकी प्राप्तिके लिये अर्थात् 'लोभ' की पूर्तिके लिये। परन्तु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं]  'आचार्याः पितरः৷৷. किं नु महीकृते'-- अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्तिके लिये राज्यके लोभमें आकर

मेरेको मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्ट-प्राप्तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका दरवाजा मोल नहीं लेना है। यहाँ दो बार 'अपि' पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों? पर मान लो कि 'पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी है' ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश करनेमें प्रवृत्त हो

जायँ, तो भी  (घ्नतोऽपि)  मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात, इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिल जाय, यह तो सम्भावना ही नहीं है, पर मान लो कि इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो तो भी  (अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः)  मैं इनको मारना नहीं चाहता। ।।1.35।। व्याख्या--[भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ--ये तीनों ही नरकके द्वार हैं। वास्तवमें एक कामके

ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामनाकी दो तरहकी क्रियाएँ होती हैं--इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति। इनमेंसे इष्टकी प्राप्ति भी दो तरहकी होती है--संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रहकी इच्छाका नाम 'लोभ' है और सुखभोगकी इच्छाका नाम 'काम' है। अनिष्टकी निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर 'क्रोध' आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी प्राप्तिमें

बाधा देनेवालोंपर अथवा हमारा अनिष्ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है जिससे अनिष्ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती है --अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने 'क्रोध' को सफल बनानेके लिये और इष्टकी प्राप्तिके लिये अर्थात् 'लोभ' की पूर्तिके लिये। परन्तु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं]  'आचार्याः

पितरः৷৷. किं नु महीकृते'----अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्तिके लिये राज्यके लोभमें आकर मेरेको मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्टप्राप्तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका

दरवाजा मोल नहीं लेना है। यहाँ दो बार  अपि  पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों? पर मान लो कि पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी' है ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश करनेमें प्रवृत्त हो जायँ तो भी  (घ्नतोऽपि)  मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात इनको मारनेसे मुझे

भगवद गीता 1.34-35 - अध्याय 1 श्लोक 34-35 हिंदी और अंग्रेजी