।।1.45।।

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।1.45।।

aho bata mahat pāpaṁ kartuṁ vyavasitā vayam yad rājya-sukha-lobhena hantuṁ sva-janam udyatāḥ

aho—alas; bata—how; mahat—great; pāpam—sins; kartum—to perform; vyavasitāḥ—have decided; vayam—we; yat—because; rājya-sukha-lobhena—driven by the desire for kingly pleasure; hantum—to kill; sva-janam—kinsmen; udyatāḥ—intending;

अनुवाद

।।1.45।। यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने स्वजनों को मारने के लिये तैयार हो गये हैं!  

टीका

1.45।। व्याख्या-- 'अहो बत ৷৷. स्वजनमुद्यताः'--ये दुर्योधन आदि   दुष्ट हैं। इनकी धर्मपर दृष्टि नहीं है। इनपर लोभ सवार हो गया है। इसलिये ये युद्धके लिये तैयार हो जायँ तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। परन्तु हमलोग तो धर्म-अधर्मको, कर्तव्य-अकर्तव्यको, पुण्य-पापको जाननेवाले हैं। ऐसे जानकार होते हुए भी अनजान मनुष्योंकी तरह हमलोगोंने बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय--विचार कर लिया है। इतना ही नहीं, युद्धमें अपने

स्वजनोंको मारनेके लिये अस्त्र-शस्त्र लेकर तैयार हो गये हैं ! यह हमलोगेंके लिये बड़े भारी आश्चर्यकी और खेद-(दुःख-) की बात है अर्थात् सर्वथा अनुचित बात है। हमारी जो जानकारी है, हमने जो शास्त्रोंसे सुना है, गुरुजनोंसे शिक्षा पायी है, अपने जीवनको सुधारनेका विचार किया है, उन सबका अनादर करके आज हमने युद्धरूपी पाप करनेके लिये विचार कर लिया है--यह बड़ा भारी पाप है --'महत्पापम्' । इस श्लोकमें 'अहो' और 'बत'--ये

दो पद आये हैं। इनमेंसे 'अहो' पद आश्चर्यका वाचक है। आश्चर्य यही है कि युद्धसे होनेवाली अनर्थ-परम्पराको जानते हुए भी हमलोगोंने युद्धरूपी बड़ा भारी पाप करनेका पक्का निश्चय कर लिया है! दूसरा 'बत' पद खेदका, दुःखका वाचक है। दुःख यही है कि थोड़े दिन रहेनेवाले राज्य और सुखके लोभमें आकर हम अपने कुटुम्बियोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं! पाप करनेका निश्चय करनेमें और स्वजनोंको मारनेके तैयार होनेमें केवल राज्यका

और सुखका लोभ ही कारण है। तात्पर्य है कि अगर युद्धमें हमारी विजय हो जायगी तो हमें राज्य, वैभव मिल मिल जायगा, हमारा आदर-सत्कार होगा, हमारी महत्ता बढ़ जायगी, पूरे राज्यपर हमारा प्रभाव रहेगा, सब जगह हमारा हुक्म चलेगा, हमारे पास धन होनेसे हम मनचाही भोग-सामग्री जुटा लेंगे, फिर खूब आराम करेंगे, सुख भोगेंगे--इस तरह हमारेपर राज्य और सुखका लोभ छा गया है, जो हमारे-जैसे मनुष्योंके लिये सर्वथा अनुचित है। इस श्लोकमें

अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि अपने सद्विचारोंका, अपनी जानकारीका आदर करनेसे ही शास्त्र, गुरुजन आदिकी आज्ञा मानी जा सकती है। परन्तु जो मनुष्य अपने सद्विचारोंका निरादर करता है, वह शास्त्रोंकी, गुरुजनोंकी और सिद्धान्तोंकी अच्छी-अच्छी बातोंको सुनकर भी उन्हें धारण नहीं कर सकता। अपने सद्विचारोंका बार-बार निरादर, तिरस्कार करनेसे सद्विचारोंकी सृष्टि बंद हो जाती है। फिर मनुष्यको दुर्गुण-दुराचारसे रोकनेवाला है

ही कौन? ऐसे ही हम भी अपनी जानकारीका आदर नहीं करेंगे, तो फिर हमें अनर्थ-परम्परासे कौन रोक सकता है? अर्थात् कोई नहीं रोक सकता। यहाँ अर्जुनकी दृष्टि युद्धरूपी क्रियाकी तरफ है। वे युद्धरूपी क्रियाको दोषी मानकर उससे हटना चाहते हैं; परन्तु वास्तवमें दोष क्या है--इस तरफ अर्जुनकी दृष्टि नहीं है। युद्धमें कौटुम्बिक मोह, स्वार्थभाव, कामना ही दोष है, पर इधर दृष्टि न जानेके कारण अर्जुन यहाँ आश्चर्य और खेद प्रकट

कर रहे हैं, जो कि वास्तवमें किसी भी विचारशील, धर्मात्मा, शूरवीर क्षत्रियके लिये उचित नहीं है। [अर्जुनने पहले अड़तीसवें श्लोकमें दुर्योधनादिके युद्धमें प्रवृत्त होनेमें, कुलक्षयके दोषमें और मित्रद्रोहके पापमें लोभको कारण बताया; और यहाँ भी अपनेको राज्य और सुखके लोभके कारण महान् पाप करनेको उद्यत बता रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन पापके होनेमें 'लोभ' को हेतु मानते हैं। फिर भी आगे तीसरे अध्यायके

छत्तीसवें श्लोकमें अर्जुनने 'मनुष्य न चाहता हुआ भी पापका आचरण क्यों कर बैठता है'--ऐसा प्रश्न क्यों किया? इसका समाधान है कि यहाँ तो कौटुम्बिक मोहके कारण अर्जुन युद्धसे निवृत्त होनेको धर्म और युद्धमें प्रवृत्त होनेको अधर्म मान रहे हैं अर्थात् उनकी शरीर आदिको लेकर केवल लौकिक दृष्टि है, इसलिये वे युद्धमें स्वजनोंको मारनेमें लोभको हेतु मान रहे हैं। परन्तु आगे गीताका उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने श्रेय--कल्याणकी

इच्छा जाग्रत् हो गयी (गीता 3। 2)। इसलिये वे कर्तव्यको छोड़कर न करनेयोग्य काममें प्रवृत्त होनेमें कौन कारण है--ऐसा पूछते हैं अर्थात् वहाँ (3। 36 में) अर्जुन कर्तव्यकी दृष्टिसे, साधककी दृष्टिसे पूछते हैं।]