।।10.6।।

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।10.6।।

maharṣhayaḥ sapta pūrve chatvāro manavas tathā mad-bhāvā mānasā jātā yeṣhāṁ loka imāḥ prajāḥ

mahā-ṛiṣhayaḥ—the great Sages; sapta—seven; pūrve—before; chatvāraḥ—four; manavaḥ—Manus; tathā—also; mat bhāvāḥ—are born from me; mānasāḥ—mind; jātāḥ—born; yeṣhām—from them; loke—in the world; imāḥ—all these; prajāḥ—people

अनुवाद

।।10.6।। सात महर्षि और उनसे भी पूर्वमें होनेवाले चार सनकादि तथा चौदह मनु -- ये सब-के-सब मेरे मनसे पैदा हुए हैं और मेरेमें भाव (श्रद्धाभक्ति) रखनेवाले हैं, जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है।

टीका

।।10.6।। व्याख्या --[पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान्ने प्राणियोंके भाव-रूपसे बीस विभूतियाँ बतायीं। अब इस श्लोकमें व्यक्ति-रूपसे पचीस विभूतियाँ बता रहे हैं, जो कि प्राणियोंमें विशेष प्रभावशाली और जगत्के कारण हैं।] 'महर्षयः सप्त'-- जो दीर्घ आयुवाले; मन्त्रोंको प्रकट करनेवाले; ऐश्वर्यवान्; दिव्य दृष्टिवाले; गुण, विद्या; आदिसे वृद्ध धर्मका साक्षात् करनेवाले; और गोत्रोंके प्रवर्तक हैं -- ऐसे सातों गुणोंसे

युक्त ऋषि सप्तर्षि कहे जाते हैं (टिप्पणी प0 540.1)। मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ -- ये सातों ऋषि उपर्युक्त सातों ही गुणोंसे युक्त हैं। ये सातों ही वेदवेत्ता हैं, वेदोंके आचार्य माने गये हैं, प्रवृत्ति-धर्मका संचालन करनेवाले हैं और प्रजापतिके कार्यमें नियुक्त किये गये हैं (टिप्पणी प0 540.2)। इन्हीं सात ऋषियोंको यहाँ 'महर्षि' कहा गया है।