।।10.9।।

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।10.9।।

mach-chittā mad-gata-prāṇā bodhayantaḥ parasparam kathayantaśh cha māṁ nityaṁ tuṣhyanti cha ramanti cha

mat-chittāḥ—those with minds fixed on me; mat-gata-prāṇāḥ—those who have surrendered their lives to me; bodhayantaḥ—enlightening (with divine knowledge of God); parasparam—one another; kathayantaḥ—speaking; cha—and; mām—about me; nityam—continously; tuṣhyanti—satisfaction; cha—and; ramanti—(they) delight; cha—also

अनुवाद

।।10.9।।। मेरेमें चित्तवाले, मेरेमें प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन आपसमें मेरे गुण, प्रभाव आदिको जानते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मेरेमें प्रेम करते हैं।

टीका

।।10.9।। व्याख्या--[भगवान्से ही सब उत्पन्न हुए हैं और भगवान्से ही सबकी चेष्टा हो रही है अर्थात् सबके मूलमें परमात्मा है -- यह बात जिनको दृढ़तासे और निःसन्देहपूर्वक जँच गयी है, उनके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। बस, उनका एक ही काम रहता है -- सब प्रकारसे भगवान्में ही लगे रहना। यही बात इस श्लोकमें बतायी गयी है।]