।।11.8।।

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।।

na tu māṁ śhakyase draṣhṭum anenaiva sva-chakṣhuṣhā divyaṁ dadāmi te chakṣhuḥ paśhya me yogam aiśhwaram

na—not; tu—but; mām—me; śhakyase—you can; draṣhṭum—to see; anena—with these; eva—even; sva-chakṣhuṣhā—with your physical eyes; divyam—divine; dadāmi—I give; te—to you; chakṣhuḥ—eyes; paśhya—behold; me—my; yogam aiśhwaram—majestic opulence

अनुवाद

।।11.8।। परन्तु तू अपनी इस आँखसे अर्थात् चर्मचक्षुसे मेरेको देख ही नहीं सकता, इसलिये मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरी ईश्वर-सम्बन्धी सामर्थ्यको देख।

टीका

।।11.8।। व्याख्या--'न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा'--तुम्हारे जो चर्मचक्षु हैं, इनकी शक्ति बहुत अल्प और सीमित है। प्राकृत होनेके कारण ये चर्मचक्षु केवल प्रकृतिके तुच्छ कार्यको ही देख सकते हैं अर्थात् प्राकृत मनुष्य, पशु, पक्षी आदिके रूपोंको, उनके भेदोंको तथा धूप-छाया आदिके रूपोंको ही देख सकते हैं। परन्तु वे मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे अतीत मेरे रूपको नहीं देख सकते।