।।12.16।।

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.16।।

anapekṣhaḥ śhuchir dakṣha udāsīno gata-vyathaḥ sarvārambha-parityāgī yo mad-bhaktaḥ sa me priyaḥ

anapekṣhaḥ—indifferent to worldly gain; śhuchiḥ—pure; dakṣhaḥ—skillful; udāsīnaḥ—without cares; gata-vyathaḥ—untroubled; sarva-ārambha—of all undertakings; parityāgī—renouncer; saḥ—who; mat-bhaktaḥ—my devotee; saḥ—he; me—to ne; priyaḥ—very dear

अनुवाद

।।12.16।।जो आकाङ्क्षासे रहित, बाहर-भीतरसे पवित्र, दक्ष, उदासीन, व्यथासे रहित और सभी आरम्भोंका अर्थात् नये-नये कर्मोंके आरम्भका सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

टीका

।।12.16।। व्याख्या--'अनपेक्षः'--भक्त भगवान्को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। उसकी दृष्टिमें भगवत्प्राप्तिसे बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं होता। अतः संसारकी किसी भी वस्तुमें उसका किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव नहीं होता। इतना ही नहीं? अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धिमें भी उसका अपनापन नहीं रहता, प्रत्युत वह उनको भी भगवान्का ही मानता है, जो कि वास्तवमें भगवान्के ही हैं। अतः उसको शरीर-निर्वाहकी भी चिन्ता नहीं

होती। फिर वह और किस बातकी अपेक्षा करे? अर्थात् फिर उसे किसी भी वस्तुकी इच्छा-वासना-स्पृहा नहीं रहती।   भक्तपर चाहे कितनी ही बड़ी आपत्ति आ जाय, आपत्तिका ज्ञान होनेपर भी उसके चित्तपर प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता। भयंकर-से-भयंकर परिस्थितिमें भी वह भगवान्की लीलाका अनुभव करके मस्त रहता है। इसलिये वह किसी प्रकारकी अनुकूलताकी कामना नहीं करता।  नाशवान् पदार्थ तो रहते नहीं, उनका वियोग अवश्यम्भावी है और अविनाशी

परमात्मासे कभी वियोग होता ही नहीं --इस वास्तविकताको जाननेके कारण भक्तमें स्वाभाविक ही नाशवान् पदार्थोंकी इच्छा पैदा नहीं होती।   यह बात खास ध्यान देनेकी है कि केवल इच्छा करनेसे शरीर-निर्वाहके पदार्थ मिलते हों तथा इच्छा न करनेसे न मिलते हों--ऐसा कोई नियम नहीं है। वास्तवमें शरीर-निर्वाहकी आवश्यक सामग्री स्वतः प्राप्त होती है; क्योंकि जीवमात्रके शरीर-निर्वाहकी आवश्यक सामग्रीका प्रबन्ध भगवान्की ओरसे पहले

ही हुआ रहता है। इच्छा करनेसे तो आवश्यक वस्तुओंकी प्राप्तिमें बाधा ही आती है। अगर मनुष्य किसी वस्तुको अपने लिये अत्यन्त आवश्यक समझकर वह वस्तु कैसे मिले? कहाँ मिले? कब मिले?' -- ऐसी प्रबल इच्छाको अपने अन्तःकरणमें पकड़े रहता है, तो उसकी उस इच्छाका विस्तार नहीं हो पाता अर्थात् उसकी वह इच्छा दूसरे लोगोंके अन्तःकरणतक नहीं पहुँच पाती। इस कारण दूसरे लोगोंके अन्तःकरणमें उस आवश्यक वस्तुको देनेकी इच्छा या प्रेरणा

नहीं होती। प्रायः देखा जाता है कि लेनेकी प्रबल इच्छा रखनेवाले-(चोर आदि) को कोई देना नहीं चाहता। इसके विपरीत किसी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले विरक्त त्यागी और बालककी आवश्यकताओंका अनुभव अपने-आप दूसरोंको होता है, और दूसरे उनके शरीर-निर्वाहका अपने-आप प्रसन्नतापूर्वक प्रबन्ध करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि इच्छा न करनेसे जीवन-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुएँ बिना माँगे स्वतः मिलती हैं। अतः वस्तुओंकी इच्छा करना केवल

मूर्खता और अकारण दुःख पाना ही है। सिद्ध भक्तको तो अपने कहे जानेवाले शरीरकी भी अपेक्षा नहीं होती; इसलिये वह सर्वथा निरपेक्ष होता है।   किसी-किसी भक्तको तो इसकी भी अपेक्षा नहीं होती कि भगवान् दर्शन दें! भगवान् दर्शन दें तो आनन्द, न दें तो आनन्द! वह तो सदा भगवान्की प्रसन्नता और कृपाको देखकर मस्त रहता है। ऐसे निरपेक्ष भक्तके पीछे-पीछे भगवान् भी घूमा करते हैं! भगवान् स्वयं कहते हैं --           निरेपक्षं

मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।          अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः।।                                                                    (श्रीमद्भा0 11। 14। 16)   'जो निरपेक्ष (किसीकी अपेक्षा न रखनेवाला), निरन्तर मेरा मनन करनेवाला, शान्त, द्वेष-रहित और सबके प्रति समान दृष्टि रखनेवाला है, उस महात्माके पीछे-पीछे मैं सदा यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसकी चरण-रज मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं

पवित्र हो जाऊँ।'   किसी वस्तुकी इच्छाको लेकर भगवान्की भक्ति करनेवाला मनुष्य वस्तुतः उस इच्छित वस्तुका ही भक्त होता है; क्योंकि (वस्तुकी ओर लक्ष्य रहनेसे) वह वस्तुके लिये ही भगवान्की भक्ति करता है, न कि भगवान्के लिये। परन्तु भगवान्की यह उदारता है कि उसको भी अपना भक्त मानते हैं (गीता 7। 16); क्योंकि वह इच्छित वस्तुके लिये किसी दूसरेपर भरोसा न रखकर अर्थात् केवल भगवान्पर भरोसा रखकर ही भजन करता है। इतना

ही नहीं, भगवान् भक्त ध्रुवकी तरह उस (अर्थार्थी भक्त) की इच्छा पूरी करके उसको सर्वथा निःस्पृह भी बना देते हैं।   'शुचिः'--शरीरमें अहंता-ममता (मैं-मेरापन) न रहनेसे भक्तका शरीर अत्यन्त पवित्र होता है। अन्तःकरणमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोधादि विकारोंके न रहनेसे उसका अन्तःकरण भी अत्यन्त पवित्र होता है। ऐसे (बाहर-भीतरसे अत्यन्त पवित्र) भक्तके दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तनसे दूसरे लोग भी पवित्र

हो जाते हैं। तीर्थ सब लोगोंको पवित्र करते हैं; किन्तु ऐसे भक्त तीर्थोंको भी तीर्थत्व प्रदान करते हैं अर्थात् तीर्थ भी उनके चरण-स्पर्शसे पवित्र हो जाते हैं (पर भक्तोंके मनमें ऐसा अहंकार नहीं होता)। ऐसे भक्त अपने हृदयमें विराजित 'पवित्राणां पवित्रम्' (पवित्रोंको भी पवित्र करनेवाले) भगवान्के प्रभावसे तीर्थोंको भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं -- तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता।।(श्रीमद्भा0

1। 13। 10)महाराज भगीरथ गङ्गाजीसे कहते हैं -- साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः। हरन्त्यघं तेऽङ्गसङ्गात् तेष्वास्ते ह्यघभिद्धरिः।।(श्रीमद्भा0 9। 9। 6)'माता! जिन्होंने लोक-परलोककी समस्त कामनाओंका त्याग कर दिया है, जो संसारसे उपरत होकर अपने-आपमें शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकोंको पवित्र करनेवाले परोपकारी साधु पुरुष हैं, वे अपने अङ्गस्पर्शसे तुम्हारे (पापियोंके अङ्ग-स्पर्शसे आये) समस्त पापोंको

नष्ट कर देंगे; क्योंकि उनके हृदयमें समस्त पापोंका नाश करनेवाले भगवान् सर्वदा निवास करते हैं।' 'दक्षः'--जिसने करनेयोग्य काम कर लिया है, वही दक्ष है। मानव-जीवनका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। इसीके लिये मनुष्यशरीर मिला है। अतः जिसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया अर्थात् भगवान्को प्राप्त कर लिया, वही वास्तवमें दक्ष अर्थात् चतुर है। भगवान् कहते हैं -- एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्। यत्सत्यमनृतेनेह

मर्त्येनाप्नोति मामृतम्।।(श्रीमद्भा0 11। 29। 22)'विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी पराकाष्ठा इसीमें है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें।' सांसारिक दक्षता (चतुराई) वास्तवमें दक्षता नहीं है। एक दृष्टिसे तो व्यवहारमें अधिक दक्षता होना कलङ्क ही है; क्योंकि इससे अन्तःकरणमें जड पदार्थोंका आदर बढ़ता है, जो मनुष्यके पतनका कारण होता है।सिद्ध भक्तमें व्यावहारिक

(सांसारिक) दक्षता भी होती है। परन्तु व्यावहारिक दक्षताको पारमार्थिक स्थितिकी कसौटी मानना वस्तुतः सिद्ध भक्तका अपमान ही करना है।'उदासीनः'--उदासीन शब्दका अर्थ है -- उत्आसीन अर्थात् ऊपर बैठा हुआ, तटस्थ, पक्षपातसे रहित।विवाद करनेवाले दो व्यक्तियोंके प्रति जिसका सर्वथा तटस्थ भाव रहता है, उसको उदासीन कहा जाता है। उदासीन शब्द निर्लिप्तताका द्योतक है। जैसे ऊँचे पर्वतपर खड़े हुए पुरुषपर नीचे पृथ्वीपर लगी हुई

आग या बाढ़ आदिका कोई असर नहीं पड़ता, ऐसे ही किसी भी अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिका भक्तपर कोई असर नहीं पड़ता, वह सदा निर्लिप्त रहता है।जो मनुष्य भक्तका हित चाहता है तथा उसके अनुकूल आचरण करता है, वह उसका मित्र समझा जाता है और जो मनुष्य भक्तका अहित चाहता है तथा उसके प्रतिकूल आचरण करता है? वह उसका शत्रु समझा जाता है। इस प्रकार मित्र और शत्रु समझे जानेवाले व्यक्तिके साथ भक्तके बाहरी व्यवहारमें फरक मालूम

दे सकता है; परन्तु भक्तके अन्तःकरणमें दोनों मनुष्योंके प्रति किञ्चिन्मात्र भी भेदभाव नहीं होता। वह दोनों स्थितियोंमें सर्वथा उदासीन अर्थात् निर्लिप्त रहता है।भक्तके अन्तःकरणमें अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। वह शरीरसहित सम्पूर्ण संसारको परमात्माका ही मानता है। इसलिये उसका व्यवहार पक्षपातसे रहित होता है।'गतव्यथः'--कुछ मिले या न मिले, कुछ भी आये या चला जाय, जिसके चित्तमें दुःख-चिन्ता-शोकरूप हलचल कभी

होती ही नहीं, उस भक्तको यहाँ 'गतव्यथः' कहा गया है।यहाँ 'व्यथा' शब्द केवल दुःखका वाचक नहीं है। अनुकूलताकी प्राप्ति होनेपर चित्तमें प्रसन्नता तथा प्रतिकूलताकी प्राप्ति होनेपर चित्तमें खिन्नताकी जो हलचल होती है, वह भी 'व्यथा' ही है। अतः अनुकूलता तथा प्रतिकूलतासे अन्तःकरणमें होनेवाले राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंके सर्वथा अभावको ही यहाँ 'गतव्यथः' पदसे कहा गया है। 'सर्वारम्भपरित्यागी'--भोग और संग्रहके

उद्देश्यसे नयेनये कर्म करनेको 'आरम्भ' कहते हैं; जैसे -- सुखभोगके उद्देश्यसे घरमें नयी-नयी चीजें इकट्ठी करना, वस्त्र खरीदना; रुपये बढ़ानेके उद्देश्यसे नयीनयी दूकानें खोलना, नया व्यापार शुरू करना आदि। भक्त भोग और संग्रहके लिये किये जानेवाले मात्र कर्मोंका सर्वथा त्यागी होता है (टिप्पणी प0 656.1)।जिसका उद्देश्य संसारका है और जो वर्ण, आश्रम, विद्या, बुद्धि, योग्यता, पद, अधिकार आदिको लेकर,अपनेमें विशेषता

देखता है, वह भक्त नहीं होता। भक्त भगवन्निष्ठ होता है। अतः उसके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रि, मन, बुद्धि, क्रिया फल आदि सब भगवान्के अर्पित होते हैं। वास्तवमें इन शरीरादिके मालिक भगवान् ही हैं। प्रकृति और प्रकृतिका कार्यमात्र भगवान्का है। अतः भक्त एक भगवान्के सिवाय किसीको भी अपना नहीं मानता। वह अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। उसके द्वारा होनेवाले मात्र कर्म भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही होते हैं। धन-सम्पत्ति,

सुख-आराम, मान-बड़ाई आदिके लिये किये जानेवाले कर्म उसके द्वारा कभी होते ही नहीं।जिसके भीतर परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिकी ही सच्ची लगन लगी है, वह साधक चाहे किसी भी मार्गका क्यों न हो, भोग भोगने और संग्रह करनेके उद्देश्यसे वह कभी कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता।'यो मद्भक्तः स मे प्रियः' -- भगवान्में स्वाभाविक ही इतना महान् आकर्षण है कि भक्त स्वतः उनकी ओर खिंच जाता है, उनका प्रेमी हो जाता है।आत्मारामाश्च मुनयो

निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।(श्रीमद्भा0 1। 7। 10)'ज्ञानके द्वारा जिनकी चित्-जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान्की हेतुरहित (निष्काम) भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान्के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी ओर खींच लेते हैं। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि अगर भगवान्में इतना महान् आकर्षण है, तो सभी मनुष्य भगवान्की ओर क्यों नहीं खिंच जाते, उनके

प्रेमी क्यों नहीं हो जाते? वास्तवमें देखा जाय तो जीव भगवान्का ही अंश है। अतः उसका भगवान्की ओर स्वतः-स्वाभाविक आकर्षण होता है। परन्तु जो भगवान् वास्तवमें अपने हैं, उनको तो मनुष्यने अपना माना नहीं और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ शरीर-कुटुम्बादि अपने नहीं हैं, उनको उसने अपना मान लिया। इसीलिये वह शारीरिक निर्वाह और सुखकी कामनासे सांसारिक भोगोंकी ओर आकृष्ट हो गया तथा अपने अंशी भगवान्से दूर (विमुख) हो गया। फिर

भी उसकी यह दूरी वास्तविक नहीं माननी चाहिये। कारण कि नाशवान् भोगोंकी ओर आकृष्ट होनेसे उसकी भगवान्से दूरी दिखायी तो देती है, पर वास्तवमें दूरी है नहीं; क्योंकि उन भोगोंमें भी तो सर्वव्यापी भगवान् परिपूर्ण हैं। परन्तु इन्द्रियोंके विषयोंमें अर्थात् भोगोंमें ही आसक्ति होनेके कारण उसको उनमें छिपे भगवान् दिखायी नहीं देते। जब इन नाशवान् भोगोंकी ओर उसका आकर्षण नहीं रहता, तब वह स्वतः ही भगवान्की ओर खिंच जाता

है। संसारमें किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति न रहनेसे भक्तका एकमात्र भगवान्में स्वतः प्रेम होता है। ऐसे अनन्यप्रेमी भक्तको भगवान् 'मद्भक्तः' कहते हैं।जिस भक्तका भगवान्में अनन्य प्रेम है, वह भगवान्को प्रिय होता है।  सम्बन्ध--सिद्ध भक्तके पाँच लक्षणोंवाला चौथा प्रकरण आगेके श्लोकमें आया है।