Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।12.3।। संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।12.4।।

ye tv akṣharam anirdeśhyam avyaktaṁ paryupāsate sarvatra-gam achintyañcha kūṭa-stham achalandhruvam sanniyamyendriya-grāmaṁ sarvatra sama-buddhayaḥ te prāpnuvanti mām eva sarva-bhūta-hite ratāḥ sanniyamyendriya-grāmaṁ sarvatra sama-buddhayaḥ te prāpnuvanti mām eva sarva-bhūta-hite ratāḥ

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Word Meanings

yewho
tubut
akṣharamthe imperishable
anirdeśhyamthe indefinable
avyaktamthe unmanifest
paryupāsateworship
sarvatra-gamthe all-pervading
achintyamthe unthinkable
chaand
kūṭa-sthamthe unchanging
achalamthe immovable
dhruvamthe eternal
sanniyamyarestraining
indriya-grāmamthe senses
sarvatraeverywhere
sama-buddhayaḥeven-minded
tethey
prāpnuvantiattain
māmme
evaalso
sarva-bhūta-hitein the welfare of all beings
ratāḥengaged sanniyamya-controlling
indriya-grāmamall the senses
sarvatraeverywhere
sama-buddayaḥequally disposed
te-they
prāpnuvantiachieve
māmunto Me
evacertainly
sarva-bhūtahiteall living entities' welfare
ratāḥengaged.
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अनुवाद

।।12.3।।जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं। ।।12.4।।जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।

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टीका

।।12.3।। व्याख्या--'तु'--यहाँ 'तु' पद साकार-उपासकोंसे निराकार-उपासकोंकी भिन्नता दिखानेके लिये आया है। 'संनियम्येन्द्रियग्रामम्'--'सम्' और 'नि'-- दो उपसर्गोंसे युक्त 'संनियम्य' पद देकर भगवान्ने यह बताया है कि सभी इन्द्रियोंको सम्यक् प्रकारसे एवं पूर्णतः वशमें करे, जिससे वे किसी अन्य विषयमें न जायँ। इन्द्रियाँ अच्छी प्रकारसे पूर्णतः वशमें न होनेपर निर्गुण-तत्त्वकी उपासनामें कठिनता होती है। सगुण-उपासनामें

तो ध्यानका विषय सगुण भगवान् होनेसे इन्द्रियाँ भगवान्में लग सकती हैं; क्योंकि भगवान्के सगुण स्वरूपमें इन्द्रियोंको अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण-उपासनामें इन्द्रिय-संयमकी आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण-उपासनामें है। निर्गुण-उपासनामें चिन्तनका कोई आधार न रहनेसे इन्द्रियोंका सम्यक् संयम हुए बिना (आसक्ति रहनेपर) विषयोंमें मन जा सकता है और विषयोंका चिन्तन

होनेसे पतन होनेकी अधिक सम्भावना रहती है (गीता 2। 62 -- 63)। अतः निर्गुणोपासकके लिये सभी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाते हुए सम्यक् प्रकारसे पूर्णतः वशमें करना आवश्यक है। इन्द्रियोंको केवल बाहरसे ही वशमें नहीं करना है? प्रत्युत विषयोंके प्रति साधकके अन्तःकरणमें भी राग नहीं रहना चाहिये; क्योंकि जबतक विषयोंमें राग है, तबतक ब्रह्मकी प्राप्ति कठिन है (गीता 15। 11)। ।।12.4।। व्याख्या --'तु'--यहाँ 'तु' पद साकार-उपासकोंसे

निराकार-उपासकोंकी भिन्नता दिखानेके लिये आया है। 'संनियम्येन्द्रियग्रामम्' -- 'सम्' और 'नि' -- दो उपसर्गोंसे युक्त 'संनियम्य' पद देकर भगवान्ने यह बताया है कि सभी इन्द्रियोंको सम्यक् प्रकारसे एवं पूर्णतः वशमें करे? जिससे वे किसी अन्य विषयमें न जायँ। इन्द्रियाँ अच्छी प्रकारसे पूर्णतः वशमें न होनेपर निर्गुणतत्त्वकी उपासनामें कठिनता होती है। सगुण-उपासनामें तो ध्यानका विषय सगुण भगवान् होनेसे इन्द्रियाँ

भगवान्में लग सकती हैं; क्योंकि भगवान्के सगुण स्वरूपमें इन्द्रियोंको अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण-उपासनामें इन्द्रिय-संयमकी आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण-उपासनामें है। निर्गुण-उपासनामें चिन्तनका कोई आधार न रहनेसे इन्द्रियोंका सम्यक् संयम हुए बिना (आसक्ति रहनेपर) विषयोंमें मन जा सकता है और विषयोंका चिन्तन होनेसे पतन होनेकी अधिक सम्भावना रहती है (गीता

2। 62 -- 63)। अतः निर्गुणोपासकके लिये सभी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाते हुए सम्यक् प्रकारसे पूर्णतः वशमें करना आवश्यक है। इन्द्रियोंको केवल बाहरसे ही वशमें नहीं करना है, प्रत्युत विषयोंके प्रति साधकके अन्तःकरणमें भी राग नहीं रहना चाहिये; क्योंकि जबतक विषयोंमें राग है, तबतक ब्रह्मकी प्राप्ति कठिन है (गीता 15। 11)।

भगवद गीता 12.3-4 - अध्याय 12 श्लोक 3-4 हिंदी और अंग्रेजी