।।13.25।।

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।13.25।।

dhyānenātmani paśhyanti kechid ātmānam ātmanā anye sānkhyena yogena karma-yogena chāpare

dhyānena—through meditation; ātmani—within one’s heart; paśhyanti—percieve; kechit—some; ātmānam—the Supreme soul; ātmanā—by the mind; anye—others; sānkhyena—through cultivation of knowledge; yogena—the yog system; karma-yogena—union with God with through path of action; cha—and; apare—others

अनुवाद

।।13.25।।कई मनुष्य ध्यानयोगके द्वारा, कई सांख्ययोगके द्वारा और कई कर्मयोगके द्वारा अपने-आपसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।

टीका

।।13.25।। व्याख्या --   ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना -- पाँचवें अध्यायके सत्ताईसवेंअट्ठाईसवें श्लोकोंमें छठे अध्यायके दसवेंसे अट्ठाईसवें श्लोकतक और आठवें अध्यायके आठवेंसे चौदहवें श्लोकतक जो सगुणसाकार? निर्गुणनिराकार आदिके ध्यानका वर्णन हुआ है? उस ध्यानमें जिसकी जैसी रुचि? श्रद्धाविश्वास और योग्यता है? उसके अनुसार ध्यान करके कई साधक अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।जो सम्बन्धविच्छेद

प्रकृति और पुरुषको अलगअलग जाननेसे होता है? वह सम्बन्धविच्छेद ध्यानसे भी होता है। ध्यान न तो चित्तकी मूढ़ वृत्तिमें होता है और न क्षिप्त वृत्तिमें होता है। ध्यान विक्षिप्त वृत्तिमें आरम्भ होता है। चित्त जब स्वरूपमें एकाग्र हो जाता है? तब समाधि हो जाती है। एकाग्र होनेपर चित्त निरुद्ध हो जाता है। इस तरह जिस अवस्थामें चित्त निरुद्ध हो जाता है। उस अवस्थामें चित्त संसार? शरीर? वृत्ति? चिन्तन आदिसे भी उपरत

हो जाता है। उस समय ध्यानयोगी अपनेआपसे अपनेआपमें अपना अनुभव करके सन्तुष्ट हो जाता है (गीता 6। 19 20)।अन्ये सांख्येन योगेन -- दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक चौथे अध्यायके तैंतीसवेंसे उन्तालीसवें श्लोकतक पाँचवें अध्यायके आठवें? नवें तथा तेरहवेंसे छब्बीसवें श्लोकतक और बारहवें अध्यायके चौथेपाँचवें आदि श्लोकोंमें कहे हुए सांख्ययोगके द्वारा कई साधक अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते

हैं।सांख्ययोग नाम है विवेकका। उस विवेकके द्वारा सत्असत्का निर्णय हो जाता है कि सत् नित्य है? सर्वव्यापक है? स्थिर स्वभाववाला है? अचल है? अव्यक्त है? अचिन्त्य है और असत् चल है? अनित्य है? विकारी है? परिवर्तनशील है। ऐसे विवेकविचारसे सांख्ययोगी प्रकृति और उसके कार्यसे बिलकुल अलग हो जाता है और अपनेआपसे अपनेआपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है।कर्मयोगेन चापरे -- दूसरे अध्यायके सैंतालीसवेंसे तिरपनवें

श्लोकतक तीसरे अध्यायके सातवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक चौथे अध्यायके सोलहवेंसे बत्तीसवें श्लोकतक पाँचवें अध्यायके छठेसातवें आदि श्लोकोंमें कहे हुए कर्मयोगके द्वारा कई साधक अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।जो सम्बन्धविच्छेद प्रकृति और पुरुषको अलगअलग जाननेसे होता है? वह सम्बन्धविच्छेद कर्मयोगसे भी होता है। कर्मयोगी जो कुछ भी करे? वह केवल संसारके हितके लिये ही करे। यज्ञ? दान? तप? तीर्थ? व्रत

आदि जो कुछ भी करे? वह सब मात्र प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करे? अपने लिये नहीं। ऐसा करनेसे स्वयंका उन क्रियाओंसे? पदार्थ? शरीर आदिसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और अपनेआपसे अपनेमें परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।मनुष्यने स्वाभाविक ही अपनेमें देहको स्वीकार किया है? माना है। इस मान्यताको दूर करनेके लिये अपनेमें,परमात्माको देखना अर्थात् देहकी जगह अपनेमें परमात्माको मानना बहुत आवश्यक है।अपनेमें परमात्माको

देखना करणनिरपेक्ष होता है। करणसापेक्ष ज्ञान प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है। इसलिये साधक किसी करणके द्वारा परमात्मामें स्थित नहीं होता? प्रत्युत स्वयं ही स्थित होता है स्वयंकी परमात्मामें स्थिति किसी करणके द्वारा हो ही नहीं सकती।