।।13.29।।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।
samaṁ paśhyan hi sarvatra samavasthitam īśhvaram na hinasty ātmanātmānaṁ tato yāti parāṁ gatim
samam—equally; paśhyan—see; hi—indeed; sarvatra—everywhere; samavasthitam—equally present; īśhvaram—God as the Supreme soul; na—do not; hinasti—degrade; ātmanā—by one’s mind; ātmānam—the self; tataḥ—thereby; yāti—reach; parām—the supreme; gatim—destination
अनुवाद
।।13.29।।क्योंकि सब जगह समरूपसे स्थित ईश्वरको समरूपसे देखनेवाला मनुष्य अपने-आपसे अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है।
टीका
।।13.29।। व्याख्या -- समं पश्यन्हि ৷৷. हिनस्त्यात्मनात्मानम् -- जो मनुष्य स्थावरजङ्गम? जडचेतन प्राणियोंमें? ऊँचनीच योनियोंमें? तीनों लोकोंमें समान रीतिसे परिपूर्ण परमात्माको देखता है अर्थात् उस परमात्माके साथ अपनी अभिन्नताका अनुभव करता है? वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता।जो शरीरके साथ तादात्म्य करके शरीरके बढ़नेसे अपना बढ़ना और शरीरके घटनेसे अपना घटना? शरीरके बीमार होनेसे अपना बीमार होना और
शरीरके नीरोग होनेसे अपना नीरोग होना? शरीरके जन्मनेसे अपना जन्मना और शरीरके मरनेसे अपना मरना मानता है तथा शरीरके विकारोंको अपने विकार मानता है? वह अपनेआपसे अपनी हत्या करता है अर्थात् अपनेको जन्ममरणके चक्करमें ले जाता है। परन्तु जिसकी दृष्टि शरीरकी तरफसे हटकर केवल सर्वव्यापक? सबके शासक परमत्माकी तरफ हो जाती है? वह फिर अपनी हत्या नहीं करता अर्थात् जन्ममरणके चक्करमें नहीं जाता? अपनेमें संसार और शरीरके
विकारोंका अनुभव नहीं करता।वास्तवमें अपनेआपकी (स्वरूपकी) हत्या अर्थात् अभाव कभी कोई कर ही नहीं सकता और अपना अभाव कभी हो भी नहीं सकता तथा अपना अभाव करना कोई चाहता भी नहीं। वास्तवमें नाशवान् शरीरके साथ तादात्म्य करना ही अपनी हत्या करना है? अपना पतन करना है? अपनेआपको जन्ममरणमें ले जाना है।ततो याति परां गतिम् -- शरीरके साथ तादात्म्य करके जो ऊँचनीच योनियोंमें भटकता था? बारबार जन्मतामरता था? वह जब परमात्माके
साथ अपनी अभिन्नताका अनुभव कर लेता है? तब वह परमगतिको अर्थात् नित्यप्राप्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है।मर्मिक बातपरमात्मतत्त्व सब देशमें है? सब कालमें है? सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें है? सम्पूर्ण वस्तुओंमें है? सम्पूर्ण घटनाओंमें है? सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें है? सम्पूर्ण क्रियाओंमें है। वह सबमें एक रूपसे? समान रीतिसे ज्योंकात्यों परिपूर्ण है। अब उसको प्राप्त करना कठिन है तो सुगम क्या होगा जहाँ चाहो? वहीं
प्राप्त कर लो। वास्तवमें इस संसारका जो हैपना दीखता है? वह संसारका नहीं है। संसार तो एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। इसमें,केवल परिवर्तनहीपरिवर्तन है। यह केवल परिवर्तनका ही पुञ्ज है। जैसे पंखा तेजीसे घूमता है तो एक चक्र दीखता है? पर वास्तवमें वहाँ चक्र नहीं है? प्रत्युत पंखेकी ताड़ी ही चक्ररूपसे दीखती है। ऐसे ही यह संसार नहीं होते हुए भी हैरूपसे दीखता है। वास्तवमें एक परमात्मतत्त्व ही हैरूपसे विद्यमान
है।विचार करें? अभी जितने शरीर आदि दीखते हैं? ये सौ वर्ष पहले थे क्या और सौ वर्ष बाद रहेंगे क्या ये पहले भी नहीं थे और अन्तमें भी नहीं रहेंगे अतः ये बीचमें भी नहीं हैं। परन्तु परमात्मा सृष्टिके पैदा होनेसे पहले भी था? सृष्टिके लीन होनेके बाद भी रहेगा? अतः परमात्मा सृष्टिके समय भी ज्योंकात्यों परिपूर्ण है। जो पहले भी नहीं था? बादमें भी नहीं रहेगा? वह अभी भी नहीं है और जो पहले भी था? बादमें भी रहेगा?
वह अभी भी है। अतः संसारका जो हैपन दीखता है? यह गलती है। परमात्मतत्त्व ही हैरूपसे दीखता है उस परमात्मतत्त्वकी सत्यतासे ही यह असत् संसार मोह(मूर्खता) के कारण सत्यकी तरह दीखता है -- जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया।।(मानस 1। 117। 4)यदि मोह नहीं होगा? तो यह संसार नहीं दीखेगा? प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही दीखेगा -- वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19)। कारण कि परमात्मा ही था? परमात्मा ही रहेगा?
बीचमें दूसरा कहाँसे आयेगा सोनेके जितने गहने हैं? उनमें पहले सोना ही था फिर सोना ही रहेगा अतः बीचमें सोनेके सिवाय दूसरा कहाँसे आयेगा गहना तो केवल (रूप? आकृति? उपयोग आदिको लेकर) कहनेके लिये है? तत्त्वतः तो सोना ही है। ऐसे ही संसार केवल कहनेके लिये है? तत्त्वतः तो परमात्मा ही है। उस परमात्माका अनुभव करनेमें ही मनुष्यजन्मकी सफलता है।है(परमात्मा) का अनुभव न करके नहीं(संसार) में उलझ जाना मनुष्यता नहीं है?
प्रत्युत पशुता है। इस पशुताका त्याग करना है -- पशुबुद्धिमिमां जहि (श्रीमद्भा0 12। 5। 2)। इसलिये भगवान् कहते हैं कि जो नष्ट होनेवाले प्राणियोंमें नष्ट न होनेवाले परमात्माको देखता है? उसका देखना सही है। परन्तु जो नष्ट होनेवालेको देखता है और नष्ट न होनेवालेको नहीं देखता? वह आत्मघाती है -- योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा।।(महाभारत? उद्योग0 42। 37) जो अन्य
प्रकारका (अविनाशी) होते हुए भी आत्माको अन्य प्रकारका (विनाशी) मानता है? उस आत्मघाती चोरने कौनसा पाप नहीं किया ,जो नाशवान् संसारको न देखकर सब जगह समानरूपसे परिपूर्ण परमात्मतत्त्वको देखता है? वह आत्मघाती नहीं होता अर्थात् वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता? इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। परन्तु जो सब जगह परिपूर्ण परमात्मतत्त्वको न देखकर संसारशरीरको देखता है? वह आत्मघाती परमगतिको न प्राप्त
होकर बारबार जन्मतामरता रहता है? दुःख पाता रहता है। इसलिये मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे? अपना पतन न करे (गीता 6। 5)।जैसे दर्पणमें मुख नहीं होनेपर भी मुख दीखता है और स्वप्नमें हाथी नहीं होनेपर भी हाथी दीखता है? ऐसे ही संसार नहीं होनेपर भी संसार दीखता है। अगर संसारकी तरफ दृष्टि न रहे तो संसार हैरूपसे नहीं दीखेगा। परमात्मा ही हैरूपसे दीख रहा है -- इस बातको साधक दृढ़तासे मान ले? फिर चाहे वह,अभी न
दीखे? पर बादमें दीखने लग जायगा। जैसे अभी साधक वृन्दावनमें बैठा है? तो उसे वृन्दावनको याद नहीं करना पड़ता। सोते समय? भोजन करते समय? हरेक कार्य करते समय वह वृन्दावनको याद नहीं करता परन्तु मैं वृन्दावनमें हूँ -- इस बातमें उसको सन्देह नहीं होता। वह बिना याद किये याद रहता है। ऐसे ही अभी भले ही परमात्मा न दीखे? पर साधक ऐसा दृढ़तासे मान ले कि हैरूपसे तो केवल परमात्मा ही है? संसार नहीं है? तो बादमें उसको
ऐसा अनुभव होने लग जायगा। कारण कि मिथ्या वस्तु कबतक टिकी रहेगी और सत्य वस्तु कबतक छिपी रहेगी सम्बन्ध -- इसी अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रक्षेत्रज्ञके संयोगकी बात बतायी। इस संयोगसे छूटनेके दो उपाय हैं -- परमात्माके साथ अपने स्वतःसिद्ध सम्बन्धको पहचानना और प्रकृति(शरीर) से अपने माने हुए सम्बन्धको तोड़ना। सत्ताईसवेंअट्ठाईसवें श्लोकोंमें परमात्माके साथ सम्बन्धको पहचाननेकी बात बता दी। अब आगेके दो श्लोकोंमें प्रकृतिसे सम्बन्ध तोड़नेकी बात बताते हैं।