मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।14.3।। सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।14.4।।
mama yonir mahad brahma tasmin garbhaṁ dadhāmy aham sambhavaḥ sarva-bhūtānāṁ tato bhavati bhārata sarva-yoniṣhu kaunteya mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ tāsāṁ brahma mahad yonir ahaṁ bīja-pradaḥ pitā
Word Meanings
अनुवाद
।।14.3।।हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति-स्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भका स्थापन करता हूँ। उससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है। ।।14.4।।हे कुन्तीनन्दन ! सम्पूर्ण योनियोंमें प्राणियोंके जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज-स्थापन करनेवाला पिता हूँ।
टीका
।।14.3।। व्याख्या -- मम योनिर्महद्ब्रह्म -- यहाँ मूल प्रकृतिको महद्ब्रह्म नामसे कहा गया है? इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे -- (1) परमात्मा छोटेपन और बड़ेपनसे रहित हैं अतः वे सूक्ष्मसेसूक्ष्म भी हैं और महान्सेमहान् भी हैं -- अणोरणीयान्महतो महीयान् (श्वेताश्वतरोपनिषद् 3। 20)। परन्तु संसारकी दृष्टिसे सबसे बड़ी चीज मूल प्रकृति ही है अर्थात् संसारमें सबसे बड़ा व्यापक तत्त्व मूल प्रकृति ही है। परमात्माके
सिवाय संसारमें इससे बढ़कर कोई व्यापक तत्त्व नहीं है। इसलिये इस मूल प्रकृतिको यहाँ महद्ब्रह्म कहा गया है।(2) महत् (महत्तत्त्व अर्थात् समष्टि बुद्धि) और ब्रह्म(परमात्मा) के बीचमें होनेसे मूल प्रकृतिको महद्ब्रह्म कहा गया है।(3) पीछेके (दूसरे) श्लोकमें सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च पदोंमें आये सर्ग और प्रलय शब्दोंका अर्थ क्रमशः ब्रह्माका दिन और ब्रह्माकी रात माना जा सकता है। अतः उनका अर्थ महासर्ग
(ब्रह्माका प्रकट होना) और महाप्रलय (ब्रह्माका लीन होना) सिद्ध करनेके लिये यहाँ महद्ब्रह्म शब्द दिया है। तात्पर्य है कि जीवन्मुक्त महापुरुषोंका इस मूल प्रकृतिसे ही सम्बन्धविच्छेद हो जाता है? इसलिये वे महासर्गमें भी पैदा नहीं होते और महाप्रलयमें भी व्यथित नहीं होते।सबका उत्पत्तिस्थान होनेसे इस मूल प्रकृतिको योनि कहा गया है। इसी मूल प्रकृतिसे अनन्त ब्रह्माण्ड पैदा होते हैं और इसीमें लीन होते हैं। इस
मूल प्रकृतिसे ही सांसारिक अनन्त शक्तियाँ पैदा होती हैं।इस मूल प्रकृतिके लिये मम पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि यह प्रकृति मेरी है। अतः इसपर आधिपत्य भी मेरा ही है। मेरी इच्छाके बिना यह प्रकृति अपनी तरफसे कुछ भी नहीं कर सकती। यह जो कुछ भी करती है? वह सब मेरी अध्यक्षतामें ही करती है (गीता 9। 10)।मैं मूल प्रकृति(महद्ब्रह्म) से भी श्रेष्ठ साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हूँ -- इसको बतानेके लिये भगवान्ने,मम
महद्ब्रह्म पदोंका प्रयोग किया है।महद् ब्रह्मसे भी श्रेष्ठ परब्रह्म परमात्माका अंश होते हुए भी जीव परमात्मासे विमुख होकर प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है। इतना ही नहीं? वह प्रकृतिके कार्य तीनों गुणोंसे सम्बन्ध जोड़ लेता है और उससे भी नीचे गिरकर गुणोंके भी कार्य शरीर आदिसे सम्बन्ध जोड़ लेता है और बँध जाता है। अतः भगवान् मम महद्ब्रह्म पदोंसे कहते हैं कि जीवका सम्बन्ध वास्तवमें मूल प्रकृतिसे भी श्रेष्ठ
मुझ परमात्माके साथ है -- मम एव अंशः (गीता 15। 7)? इसलिये प्रकृतिके साथ सम्बन्ध मानकर उसको अपना पतन नहीं करना चाहिये।तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् -- यहाँ गर्भम् पद कर्मसंस्कारोंसहित जीवसमुदायका वाचक है। भगवान् कोई नया गर्भ स्थापन नहीं करते। अनादिकालसे जो जीव जन्ममरणके प्रवाहमें पड़े हुए हैं? वे महाप्रलयके समय अपनेअपने कर्मसंस्कारोंसहित प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं (गीता 9। 7)। प्रकृतिमें लीन हुए जीवोंके कर्म
जब परिपक्व होकर फल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं? तब महासर्गके आदिमें भगवान् उन जीवोंका प्रकृतिके साथ पुनः विशेष सम्बन्ध (जो कि कारणशरीररूपसे पहलेसे ही था) स्थापित करा देते हैं -- यही भगवान्के द्वारा जीवसमुदायरूप गर्भको प्रकृतिरूप योनिमें स्थापन करना है।सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत -- भगवान्के द्वारा प्रकृतिमें गर्भस्थापन करनेके बाद सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है अर्थात् वे प्राणी सूक्ष्म
और स्थूल शरीर धारण करके पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं। महासर्गके आदिमें प्राणियोंका यह उत्पन्न होना ही भगवान्का विसर्ग (त्याग) है? आदिकर्म है (गीता 8। 3)।[जीव जबतक मुक्त नहीं होता? तबतक प्रकृतिके अंश कारणशरीरसे उसका सम्बन्ध बना रहता है और वह महाप्रलयमें कारणशरीरसहित ही प्रकृतिमें लीन होता है।] सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें समष्टि संसारकी उत्पत्तिकी बात बतायी? अब आगेके श्लोकमें व्यष्टि शरीरोंकी उत्पत्तिका
वर्णन करते हैं। ।।14.4।। व्याख्या -- सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः -- जरायुज (जेरके साथ पैदा होनेवाले मनुष्य? पशु आदि)? अण्डज (अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले पक्षी? सर्प आदि)? स्वेदज (पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले जूँ? लीख आदि) और उद्भिज्ज (पृथ्वीको फोड़कर उत्पन्न होनेवाले वृक्ष? लता आदि) -- सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्तिके ये चार खानि अर्थात् स्थान हैं। इन चारोंमेंसे एकएक स्थानसे लाखों योनियाँ
पैदा होती हैं। उन लाखों योनियोंमेंसे एकएक योनिमें भी जो प्राणी पैदा होते हैं? उन सबकी आकृति अलगअलग होती है। एक योनिमें? एक जातिमें पैदा होनेवाले प्राणियोंकी आकृतिमें भी स्थूल या सूक्ष्म भेद रहता है अर्थात् एक समान आकृति किसीकी भी नहीं मिलती। जैसे? एक मनुष्ययोनिमें अरबों वर्षोंसे अरबों शरीर पैदा होते चले आये हैं? पर आजतक किसी भी मनुष्यकी आकृति परस्पर नहीं मिलती। इस विषयमें किसी कविने कहा है -- पाग
भाग वाणी प्रकृति? आकृति वचन विवेक। अक्षर मिलत न एकसे? देखे देश अनेक।।अर्थात् पगड़ी? भाग्य? वाणी (कण्ठ)? स्वभाव? आकृति? शब्द? विचारशक्ति और लिखनेके अक्षर -- ये सभी दो मनुष्योंके भी एक समान नहीं मिलते। इस तरह चौरासी लाख योनियोंमें जितने शरीर अनादिकालसे पैदा होते चले आ रहे हैं? उन सबकी आकृति अलगअलग है। चौरासी लाख योनियोंके सिवाय देवता? पितर?,गन्धर्व? भूत? प्रेत आदिको भी यहाँ सर्वयोनिषु पदके अन्तर्गत
ले लेना चाहिये।तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता -- उपर्युक्त चार खानि अर्थात् चौरासी लाख योनियाँ तो शरीरोंके पैदा होनेके स्थान हैं और उन सब योनियोंका उत्पत्तिस्थान (माताके स्थानमें) महद्ब्रह्म अर्थात् मूल प्रकृति है। उस मूल प्रकृतिमें जीवरूप बीजका स्थापन करनेवाला पिता मैं हूँ।भिन्नभिन्न वर्ण और आकृतिवाले नाना प्रकारके शरीरोंमें भगवान् अपने चेतनअंशरूप बीजको स्थापित करते हैं -- इससे सिद्ध होता
है कि प्रत्येक प्राणीमें स्थित परमात्माका अंश शरीरोंकी भिन्नतासे ही भिन्नभिन्न प्रतीत होता है। वास्तवमें सम्पूर्ण प्राणियोंमें एक ही परमात्मा विद्यमान हैं (गीता 13। 2)। इस बातको एक दृष्टान्तसे समझाया जाता है। यद्यपि दृष्टान्त सर्वांशमें नहीं घटता? तथापि वह बुद्धिको दार्ष्टान्तके नजदीक ले जानेमें सहायक होता है। कपड़ा और पृथ्वी -- दोनोंमें एक ही तत्त्वकी प्रधानता है। कपड़ेको अगर जलमें डाला जाय तो वह
जलके निचले भागमें जाकर बैठ जाता है। कपड़ा ताना (लम्बा धागा) और बाना(आ़ड़ा धागा) से बुना जाता है। प्रत्येक ताने और बानेके बीचमें एक सूक्ष्म छिद्र रहता है। कपड़ेंमें ऐसे अनेक छिद्र होते हैं। जलमें पड़े रहनेसे कपड़के सम्पूर्ण तन्तुओंमें और अलगअलग छिद्रोंमें जल भर जाता है। कपड़ेको जलसे बाहर निकालनेपर भी उसके तन्तुओंमें और असंख्य छिद्रोंमें एक ही जल समानरीतिसे परिपूर्ण रहता है। इस दृष्टान्तमें कपड़ा प्रकृति
है? अलगअलग असंख्य छिद्र शरीर हैं और कपड़े तथा उसके छिद्रोंमें परिपूर्ण जल परमात्मतत्त्व है। तात्पर्य है कि स्थूल दृष्टिसे तो प्रत्येक शरीरमें परमात्मतत्त्व अलगअलग दिखायी देता है? पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो सम्पूर्ण शरीरोंमें? सम्पूर्ण संसारमें एक ही परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है। सम्बन्ध -- परमात्मा और उनकी शक्ति प्रकृतिके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले जीव प्रकृतिजन्य गुणोंसे कैसे बँधते हैं -- इस विषयका विवेचन आगेके श्लोकसे आरम्भ करते हैं।