।।15.16।।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।15.16।।

dvāv imau puruṣhau loke kṣharaśh chākṣhara eva cha kṣharaḥ sarvāṇi bhūtāni kūṭa-stho ’kṣhara uchyate

dvau—two; imau—these; puruṣhau—beings; loke—in creation; kṣharaḥ—the perishable; cha—and; akṣharaḥ—the imperishable; eva—even; cha—and; kṣharaḥ—the perishable; sarvāṇi—all; bhūtāni—beings; kūṭa-sthaḥ—the liberated; akṣharaḥ—the imperishable; uchyate—is said

अनुवाद

।।15.16।।इस संसारमें क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) -- ये दो प्रकारके पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है।

टीका

।।15.16।। व्याख्या --   द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च -- यहाँ लोके पदको सम्पूर्ण संसारका वाचक समझना चाहिये। इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें जीवलोके पद भी इसी अर्थमें आया है।इस जगत्में दो विभाग जाननेमें आते हैं -- शरीरादि नाशवान् पदार्थ (जड) और अविनाशी जीवात्मा (चेतन)। जैसे? विचार करनेसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक तो प्रत्यक्ष दीखनेवाला शरीर है और एक उसमें रहनेवाला जीवात्मा है। जीवात्माके रहनेसे

ही प्राण कार्य करते हैं और शरीरका संचालन होता है। जीवात्माके साथ प्राणोंके निकलते ही शरीरका संचालन बंद हो जाता है और शरीर सड़ने लगता है। लोग उस शरीरको जला देते हैं। कारण कि महत्त्व नाशवान् शरीरका नहीं? प्रत्युत उसमें रहनेवाले अविनाशी जीवात्माका है।पञ्चमहाभूतों(आकाश? वायु? अग्नि? जल और पृथ्वी) से बने हुए शरीरादि जितने पदार्थ हैं? वे सभी जड और नाशवान् हैं। प्राणियोंके (प्रत्यक्ष देखनेमें आनेवाले) स्थूलशरीर

स्थूल समष्टिजगत्के साथ एक हैं दस इन्द्रियाँ? पाँच प्राण? मन और बुद्धि -- इन सत्रह तत्त्वोंसे युक्त सूक्ष्मशरीर सूक्ष्म समष्टिजगत्के साथ एक हैं और कारणशरीर (स्वभाव? कर्मसंस्कार? अज्ञान) कारण समष्टिजगत्(मूल प्रकृति) के साथ एक हैं। ये सब क्षरणशील (नाशवान्) होनेके कारण क्षर नामसे कहे गये हैं।वास्तवमें व्यष्टि नामसे कोई वस्तु है ही नहीं केवल समष्टिसंसारके थोड़े अंशकी वस्तुको अपनी माननेके कारण उसको व्यष्टि

कह देते हैं। संसारके साथ शरीर आदि वस्तुओंकी भिन्नता केवल (रागममता आदिके कारण) मानी हुई है? वास्तवमें है नहीं। मात्र पदार्थ? और क्रियाएँ प्रकृतिकी ही हैं (टिप्पणी प0 781.1)। इसलिये स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरकी समस्त क्रियाएँ क्रमशः स्थूल? सूक्ष्म और कारण समष्टिसंसारके हितके लिये ही करनी हैं? अपने लिये नहीं।जिस तत्त्वका कभी विनाश नहीं होता और जो सदा निर्विकार रहता है? उस जीवात्माका वाचक यहाँ अक्षरः

पद है (टिप्पणी प0 781.2)। प्रकृति जड है और जीवात्मा (चेतन परमात्माका अंश होनेसे) चेतन है।इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने जिसका छेदन करनेके लिये कहा था? उस संसारको यहाँ क्षरः पदसे और सातवें श्लोकमें भगवान्ने जिसको अपना अंश बताया था? उस जीवात्माको यहाँ अक्षरः पदसे कहा गया है।यहाँ आये क्षर? अक्षर? और पुरुषोत्तम शब्द क्रमशः पुँल्लिङ्ग? स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग हैं। इससे यह समझना चाहिये कि प्रकृति?

जीवात्मा और परमात्मा न तो स्त्री हैं? न पुरुष हैं और न नपुंसक ही हैं। वास्तवमें लिङ्ग भी शब्दकी दृष्टिसे है? तत्त्वसे कोई लिङ्ग नहीं है (टिप्पणी प0 781.3)।क्षर और अक्षर -- दोनोंसे उत्तम पुरुषोत्तम नामकी सिद्धिके लिये यहाँ भगवान्ने क्षर और अक्षर -- दोनोंको पुरुष नामसे कहा है।क्षरः सर्वाणि भूतानि -- इसी अध्यायके आरम्भमें जिस संसारवृक्षका स्वरूप बताकर उसका छेदन करनेकी प्रेरणा की गयी थी? उसी संसारवृक्षको

यहाँ क्षर नामसे कहा गया है।यहाँ भूतानि पद प्राणियोंके स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरोंका ही वाचक समझना चाहिये। कारण कि यहाँ भूतोंको नाशवान् बताया गया है। प्राणियोंके शरीर ही नाशवान् होते हैं? प्राणी स्वयं नहीं। अतः यहाँ,भूतानि पद जड शरीरोंके लिये ही आया है।कूटस्थोऽक्षर उच्यते -- इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान्ने जिसको अपना सनातन अंश बताया है? उसी जीवात्माको यहाँ अक्षर नामसे कहा गया है।जीवात्मा चाहे

जितने शरीर धारण करे? चाहे जितने लोकोंमें जाय? उसमें कभी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता वह सदा ज्योंकात्यों रहता है (गीता 8। 19 13। 31)। इसीलिये यहाँ उसको कूटस्थ कहा गया है।,गीतामें परमात्मा और जीवात्मा दोनोंके स्वरूपका वर्णन प्रायः समान ही मिलता है। जैसे परमात्माको (12। 3 में) कूटस्थ तथा (8। 4 में) अक्षर कहा गया है? ऐसे ही यहाँ (15। 16 में) जीवात्माको भी,कूटस्थ और अक्षर कहा गया है। जीवात्मा और परमात्मा

-- दोनोंमें ही परस्पर तात्त्विक एवं स्वरूपगत एकता है।स्वरूपसे जीवात्मा सदासर्वदा निर्विकार ही है परन्तु भूलसे प्रकृति और उसके कार्य शरीरादिसे अपनी एकता मान लेनेके कारण उसकी जीव संज्ञा हो जाती है? नहीं तो (अद्वैतसिद्धान्तके अनुसार) वह साक्षात् परमात्मतत्त्व ही है।