।।16.19।।

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।16.19।।

tān ahaṁ dviṣhataḥ krūrān sansāreṣhu narādhamān kṣhipāmy ajasram aśhubhān āsurīṣhv eva yoniṣhu

tān—these; aham—I; dviṣhataḥ—hateful; krūrān—cruel; sansāreṣhu—in the material world; nara-adhamān—the vile and vicious of humankind; kṣhipāmi—I hurl; ajasram—again and again; aśhubhān—inauspicious; āsurīṣhu—demoniac; eva—indeed; yoniṣhu—in to the wombs;

अनुवाद

।।16.19।।उन द्वेष करनेवाले, क्रूर स्वभाववाले और संसारमें महान् नीच, अपवित्र मनुष्योंको मैं बार-बार आसुरी योनियोंमें गिराता ही रहता हूँ।

टीका

।।16.19।। व्याख्या --   तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् -- सातवें अध्यायके पंद्रहवें और नवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें वर्णित आसुरीसम्पदाका इस अध्यायके सातवेंसे अठारहवें श्लोकतक विस्तारसे वर्णन किया गया। अब आसुरीसम्पदाके विषयका इन दो (उन्नीसवेंबीसवें) श्लोकोंमें उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसे आसुर मनुष्य बिना ही कारण सबसे वैर रखते हैं और सबका अनिष्ट करनेपर ही तुले रहते हैं। उनके

कर्म बड़े क्रूर होते हैं? जिनके द्वारा दूसरोंकी हिंसा आदि हुआ करती है। ऐसे वे क्रूर? निर्दयी? हिंसक मनुष्य नराधम अर्थात् मनुष्योंमें महान् नीच हैं -- नराधमान्। उनको मनुष्योंमें नीच कहनेका मतलब यह है कि नरकोंमें रहनेवाले और पशुपक्षी आदि (चौरासी लाख योनियाँ) अपने पूर्वकर्मोंका फल भोगकर शुद्ध हो रहे हैं और ये आसुर मनुष्य अन्यायपाप करके पशुपक्षी आदिसे भी नीचेकी ओर जा रहे हैं। इसलिये इन लोगोंका सङ्ग बहुत

बुरा कहा गया है -- बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।(मानस 5। 46। 4)नरकोंका वास बहुत अच्छा है? पर विधाता (ब्रह्मा) हमें दुष्टका सङ्ग कभी न दे क्योंकि नरकोंके वाससे तो पाप नष्ट होकर शुद्धि आती है? पर दुष्टोंके सङ्गसे अशुद्धि आती है? पाप बनते हैं पापके ऐसे बीज बोये जाते हैं? जो आगे नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ भोगनेपर भी पूरे नष्ट नहीं होते।प्रकृतिके अंश शरीरमें राग अधिक होनेसे आसुरीसम्पत्ति

अधिक आती है क्योंकि भगवान्ने कामना(राग) को सम्पूर्ण पापोंमें हेतु बताया है (3। 37)। उस कामनाके बढ़ जानेसे आसुरीसम्पत्ति बढ़ती ही चली जाती है। जैसे धनकी अधिक कामना बढ़नेसे झूठ? कपट? छल आदि दोष विशेषतासे बढ़ जाते हैं और वृत्तियोंमें भी अधिकसेअधिक धन कैसे मिले -- ऐसा लोभ बढ़ जाता है। फिर मनुष्य अनुचित रीतिसे? छिपावसे? चोरीसे धन लेनेकी इच्छा करता है। इससे भी अधिक लोभ बढ़ जाता है? तो फिर मनुष्य डकैती करने

लग जाता है और थोड़े धनके लिये मनुष्यकी हत्या कर देनेमें भी नहीं हिचकता। इस प्रकार उसमें क्रूरता बढ़ती रहती है और उसका स्वभाव राक्षसोंजैसा बन जाता है। स्वभाव बिगड़नेपर उसका पतन होता चला जाता है और अन्तमें उसे कीटपतङ्ग आदि आसुरी योनियों और घोर नरकोंकी महान् यातना भोगनी पड़ती है।क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु -- जिनका नाम लेना? दर्शन करना? स्मरण करना आदि भी महान् अपवित्र करनेवाला है -- अशुभान्?

ऐसे क्रूर? निर्दयी? सबके वैरी मनुष्योंके स्वभावके अनुसार ही भगवान् उनको आसुरी योनि देते हैं। भगवान् कहते हैं -- आसुरीष्वेव योनिषु क्षिपामि अर्थात् मैं उनको उनके स्वभावके लायक ही कुत्ता? साँप? बिच्छू? बाघ? सिंह आदि आसुरी योनियोंमें गिराता हूँ। वह भी एकदो बार नहीं? प्रत्युत बारबार गिराता हूँ -- अजस्रम्? जिससे वे अपने कर्मोंका फल भोगकर शुद्ध? निर्मल होते रहें।भगवान्का उनको आसुरी योनियोंमें गिरानेका तात्पर्य

क्या हैभगवान्का उन क्रूर? निर्दयी मनुष्योंपर भी अपनापन है। भगवान् उनको पराया नहीं समझते? अपना द्वेषीवैरी नहीं समझते? प्रत्युत अपनी ही समझते हैं। जैसे? जो भक्त जिस प्रकार भगवान्की शरण लेते हैं? भगवान् भी उनको उसी प्रकार आश्रय देते हैं (गीता 4। 11)। ऐसे ही जो भगवान्के साथ द्वेष करते हैं? उनके साथ भगवान् द्वेष नहीं करते? प्रत्युत उनको अपना ही समझते हैं। दूसरे साधारण मनुष्य जिस मनुष्यसे अपनापन करते हैं?

उस मनुष्यको ज्यादा सुखआराम देकर उसको लौकिक सुखमें फँसा देते हैं परन्तु भगवान् जिनसे अपनापन करते हैं उनको शुद्ध बनानेके लिये वे प्रतिकूल परिस्थिति भेजते हैं? जिससे वे सदाके लिये सुखी हो जायँ -- उनका उद्धार हो जाय।जैसे? हितैषी अध्यापक विद्यार्थियोंपर शासन करके? उनकी ताड़ना करके पढ़ाते हैं? जिससे वे विद्वान् बन जायँ? उन्नत बन जायँ? सुन्दर बन जायँ? ऐसे ही जो प्राणी परमात्माको जानते नहीं? मानते नहीं और

उनका खण्डन करते हैं? उनको भी परम कृपालु भगवान् जानते हैं? अपना मानते हैं और उनको आसुरी योनियोंमें गिराते हैं? जिससे उनके किये हुए पाप दूर हो जायँ और वे शुद्ध? निर्मल बनकर अपना कल्याण कर लें।