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अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।।17.11।।

aphalākāṅkṣhibhir yajño vidhi-driṣhṭo ya ijyate yaṣhṭavyam eveti manaḥ samādhāya sa sāttvikaḥ

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Word Meanings

aphala-ākāṅkṣhibhiḥwithout expectation of any reward
yajñaḥsacrifice
vidhi-driṣhṭaḥthat is in accordance with the scriptural injunctions
yaḥwhich
ijyateis performed
yaṣhṭavyam-eva-itiought to be offered
manaḥmind
samādhāyawith conviction
saḥthat
sāttvikaḥof the nature of goodness
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अनुवाद

।।17.11।।यज्ञ करना कर्तव्य है -- इस तरह मनको समाधान करके फलेच्छारहित मनुष्योंद्वारा जो शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक है।

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टीका

।।17.11।। व्याख्या --   यष्टव्यमेवेति -- जब मनुष्यशरीर मिल गया और अपना कर्तव्य करनेका अधिकार भी प्राप्त हो गया? तो अपने वर्णआश्रममें शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार यज्ञ करनामात्र मेरा कर्तव्य है। एव इति -- ये दो अव्यय लगानेका तात्पर्य है कि इसके सिवाय दूसरा कोई भाव न रखे अर्थात् इस यज्ञसे लोकमें और परलोकमें मेरेको क्या मिलेगा इससे मेरेको क्या लाभ होगा -- ऐसा भाव भी न रहे? केवल कर्तव्यमात्र रहे।जब उससे

कुछ मिलनेकी आशा ही नहीं रखनी है? तो फिर (फलेच्छाका त्याग करके) यज्ञ करनेकी जरूरत ही क्या है -- इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं -- मनः समाधाय अर्थात् यज्ञ करना हमारा कर्तव्य है ऐसे मनको समाधान करके यज्ञ करना चाहिये।अफलाकाङ्क्षिभिः -- मनुष्य फलकी इच्छा रखनेवाला न हो अर्थात् लोकपरलोकमें मेरेको इस यज्ञका अमुक फल मिले -- ऐसा भाव रखनेवाला न हो।यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते -- शास्त्रोंमें विधिके विषयमें जैसी

आज्ञा दी गयी है? उसके अनुसार ही यज्ञ किया जाय। इस प्रकारसे जो यज्ञ किया जाता है? वह सात्त्विक होता है -- स सात्त्विकः।सात्त्विकताका तात्पर्यसात्त्विकताका क्या तात्पर्य होता है अब इसपर थोड़ा विचार करें। यष्टव्यम् (टिप्पणी प0 846) -- यज्ञ करनामात्र कर्तव्य है -- ऐसा जब उद्देश्य रहता है? तब उस यज्ञके साथ अपना सम्बन्ध नहीं जुड़ता। परन्तु जब कर्तामें वर्तमानमें मान? आदर? सत्कार आदि मिलें? मरनेके बाद स्वर्गादि

लोक मिलें तथा आगेके जन्ममें धनादि पदार्थ मिलें -- इस प्रकारकी इच्छाएँ होंगी? तब उसका उस यज्ञके साथ सम्बन्ध जुड़ जायगा। तात्पर्य है कि फलकी इच्छा रखनेसे ही यज्ञके साथ सम्बन्ध जुड़ता है। केवल कर्तव्यमात्रका पालन करनेसे उससे सम्बन्ध नहीं जुड़ता? प्रत्युत उससे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और (स्वार्थ तथा अभिमान न रहनेसे) कर्ताकी अहंता शुद्ध हो जाती है।इसमें एक बड़ी मार्मिक बात है कि कुछ भी कर्म करनेमें कर्ताका

कर्मके साथ सम्बन्ध रहता है। कर्म कर्तासे अलग नहीं होता। कर्म कर्ताका ही चित्र होता है अर्थात् जैसा कर्ता होगा? वैसे ही कर्म होंगे। इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा है -- यो यच्छ्रद्धः स एव सः अर्थात् जो जैसी श्रद्धावाला है? वैसा ही उसका स्वरूप होता है और वैसा ही (श्रद्धाके अनुसार) उससे कर्म होता है। तात्पर्य यह है कि कर्ताका कर्मके साथ सम्बन्ध होता है और कर्मके साथ सम्बन्ध होनेसे ही कर्ताका

बन्धन होता है। केवल कर्तव्यमात्र समझकर कर्म,करनेसे कर्ताका कर्मके साथ सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कर्ता मुक्त हो जाता है।केवल कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करना क्या है अपने लिये कुछ नहीं करना है? सामग्रीके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है मेरा देश? काल? आदिसे भी कोई सम्बन्ध नहीं है केवल मनुष्य होनेके नाते जो कर्तव्य प्राप्त हुआ है? उसको कर देना है -- ऐसा भाव होनेसे कर्ता फलाकाङ्क्षी नहीं होगा और कर्मोंका फल

कर्ताको बाँधेगा नहीं अर्थात् यज्ञकी क्रिया और यज्ञके फलके साथ कर्ताका सम्बन्ध नहीं होगा। गीता कहती है -- कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि। (5। 11) अर्थात् करण (शरीर? इन्द्रियाँ आदि) उपकरण,(यज्ञ करनेमें उपयोगी सामग्री) और अधिकरण (स्थान) आदि किसीके भी साथ हमारा सम्बन्ध न हो।यज्ञकी क्रियाका आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। ऐसे ही उसके फलका भी आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। क्रिया और फल दोनों

उत्पन्न होकर नष्ट होनेवाले हैं और स्वयं (आत्मा) नित्यनिरन्तर रहनेवाला है परन्तु यह (स्वयं) क्रिया और फलके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। इस माने हुए सम्बन्धको यह जबतक नहीं छोड़ता? तबतक यह जन्ममरणरूप बन्धनमें पड़ा रहता है -- फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)।एक विलक्षण बात है कि गीतामें जो सत्त्वगुण कहा है? वह संसारसे सम्बन्धविच्छेद करके परमात्माकी तरफ ले जानेवाला होनेसे सत् अर्थात् निर्गुण हो जाता है

(टिप्पणी प0 847)। दैवीसम्पत्तिमें भी जितने गुण हैं? वे सब सात्त्विक ही हैं। परन्तु दैवीसम्पत्तिवाला तभी परमात्माको प्राप्त होगा? जब वह सत्त्वगुणसे ऊँचा उठ जायगा अर्थात् जब गुणोंके सङ्गसे सर्वथा रहित हो जायगा।

भगवद गीता 17.11 - अध्याय 17 श्लोक 11 हिंदी और अंग्रेजी