Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।18.15।। तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।18.16।।

śharīra-vāṅ-manobhir yat karma prārabhate naraḥ nyāyyaṁ vā viparītaṁ vā pañchaite tasya hetavaḥ tatraivaṁ sati kartāram ātmānaṁ kevalaṁ tu yaḥ paśhyaty akṛita-buddhitvān na sa paśhyati durmatiḥ

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Word Meanings

śharīra-vāk-manobhiḥwith body, speech, or mind
yatwhich
karmaaction
prārabhateperforms
naraḥa person
nyāyyamproper
or
viparītamimproper
or
pañchafive
etethese
tasyatheir
hetavaḥfactors
tatrathere
evam satiin spite of this
kartāramthe doer
ātmānamthe soul
kevalamonly
tubut
yaḥwho
paśhyatisee
akṛita-buddhitvātwith impure intellect
nanot
saḥthey
paśhyatisee
durmatiḥfoolish
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अनुवाद

।।18.15।।मनुष्य, शरीर वाणी और मनके द्वारा शास्त्रविहित अथवा शास्त्रविरुद्ध जो कुछ भी कर्म आरम्भ करता है, उसके ये (पूर्वोक्त) पाँचों हेतु होते हैं। ।।18.16।।परन्तु ऐसे पाँच हेतुओंके होनेपर भी जो उस (कर्मोंके) विषयमें केवल (शुद्ध) आत्माको कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है।

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टीका

।।18.15।। व्याख्या --   शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म ৷৷. पञ्चैते तस्य हेतवः -- पीछेके (चौदहवें) श्लोकमें कर्मोंके होनेमें जो अधिष्ठान आदि पाँच हेतु बताये गये हैं? वे पाँचों हेतु इन पदोंमें आ जाते हैं जैसे -- शरीर पदमें अधिष्ठान आ गया? वाक् पदमें बहिःकरण और मन पदमें अन्तःकरण आ गया? नरः पदमें कर्ता आ गया? और प्रारभते पदमें सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी चेष्टा आ गयी। अब रही दैव की बात। यह दैव अर्थात् संस्कार अन्तःकरणमें

ही रहता है परन्तु उसका स्पष्ट रीतिसे पता नहीं लगता। उसका पता तो उससे उत्पन्न हुई वृत्तियोंसे और उसके अनुसार किये हुए कर्मोंसे ही लगता है।मनुष्य शरीर? वाणी और मनसे जो कर्म आरम्भ करता है अर्थात् कहीं शरीरकी प्रधानतासे? कहीं वाणीकी प्रधानतासे और कहीं मनकी प्रधानतासे जो कर्म करता है? वह चाहे न्याय्य -- शास्त्रविहित हो? चाहे विपरीत, -- शास्त्रविरुद्ध हो? उसमें ये (पूर्वश्लोकमें आये) पाँच हेतु होते हैं।शरीर?

वाणी और मन -- इन तीनोंके द्वारा ही सम्पूर्ण कर्म होते हैं। इनके द्वारा किये गये कर्मोंको ही कायिक? वाचिक और मानसिक कर्मकी संज्ञा दी जाती है। इन तीनोंमें अशुद्धि आनेसे ही बन्धन होता है। इसीलिये इन तीनों(शरीर? वाणी और मन) की शुद्धिके लिये सत्रहवें अध्यायके चौदहवें? पन्द्रहवें और सोलहवें श्लोकमें क्रमशः कायिक? वाचिक और मानसिक तपका वर्णन किया गया है। तात्पर्य यह है कि शरीर? वाणी और मनसे कोई भी शास्त्रनिषिद्ध

कर्म न किया जाय? केवल शास्त्रविहित कर्म ही किये जायँ? तो वह तप हो जाता है। सत्रहवें अध्यायके ही सत्रहवें श्लोकमें अफलाकाङ्क्षिभिः पद देकर यह बताया है कि निष्कामभावसे किया हुआ तप सात्त्विक होता है। सात्त्विक तप बाँधनेवाला नहीं होता? प्रत्युत मुक्ति देनेवाला होता है। परन्तु राजसतामस तप बाँधनेवाले होते हैं।इन शरीर? वाणी आदिको अपना समझकर अपने लिये कर्म करनेसे ही इनमें अशुद्धि आती है? इसलिये इनको शुद्ध

किये बिना केवल विचारसे बुद्धिके द्वारा सांख्यसिद्धान्तकी बातें तो समझमें आ सकती हैं परन्तु कर्मोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है -- ऐसा स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। ऐसी हालतमें साधक शरीर आदिको अपना न समझे और अपने लिये कोई कर्म न करे तो वे शरीरादि बहुत जल्दी शुद्ध हो जायँगे अतः चाहे कर्मयोगकी दृष्टिसे इनको शुद्ध करके इनसे सम्बन्ध तोड़ ले? चाहे सांख्ययोगकी दृष्टिसे प्रबल विवेकके द्वारा इनसे

सम्बन्ध तोड़ ले। दोनों ही साधनोंसे प्रकृति और प्रकृतिके कार्यके साथ अपने माने हुए सम्बन्धका विच्छेद हो जाता है और वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जाता है।जिस समष्टिशक्तिसे संसारमात्रकी क्रियाएँ होती हैं? उसी समष्टिशक्तिसे व्यष्टि शरीरकी क्रियाएँ भी स्वाभाविक होती हैं। विवेकको महत्त्व न देनेके कारण स्वयं उन क्रियाओंमेंसे खानापीना? उठनाबैठना? सोनाजगना आदि जिन क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है? वहाँ कर्मसंग्रह

होता है अर्थात् वे क्रियाएँ बाँधनेवाली हो जाती हैं। परन्तु जहाँ स्वयं अपनेको कर्ता नहीं मानता? वहाँ कर्मसंग्रह नहीं होता। वहाँ तो केवल क्रियामात्र होती है। इसलिये वे क्रियाएँ फलोत्पादक अर्थात् बाँधनेवाली नहीं होतीं। जैसे? बचपनसे जवान होना? श्वासका आनाजाना? भोजनका पाचन होना तथा रस आदि बन जाना आदि क्रियाएँ बिना कर्तृत्वाभिमानके प्रकृतिके द्वारा स्वतःस्वाभाविक होती हैं और उनका कोई कर्मसंग्रह अर्थात्

पापपुण्य नहीं होता। ऐसे ही कर्तृत्वाभिमान न रहनेपर सभी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं -- ऐसा स्पष्ट अनुभव हो जाता है। सम्बन्ध --   भगवान्ने सांख्यसिद्धान्त बतानेके लिये जो उपक्रम किया है? उनमें कर्मोंके होनेमें पाँच हेतु बतानेका क्या आशय है -- इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं। ।।18.16।। व्याख्या --   तत्रैवं सति ৷৷. पश्यति दुर्मतिः -- जितने भी कर्म होते हैं? वे सब अधिष्ठान? कर्ता? करण?

चेष्टा और दैव -- इन पाँच हेतुओंसे ही होते हैं? अपने स्वरूपसे नहीं। परन्तु ऐसा होनेपर भी जो पुरुष अपने स्वरूपको कर्ता मान लेता है? उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है -- अकृतबुद्धित्वात् अर्थात् उसने विवेकविचारको महत्त्व नहीं दिया है। जड और चेतनका? प्रकृति और पुरुषका जो वास्तविक विवेक है? अलगाव है? उसकी तरफ उसने ध्यान नहीं दिया है। इसलिये उसकी बुद्धिमें दोष आ गया है। उस दोषके कारण वह अपनेको कर्ता मान लेता है।यहाँ

आये अकृतबुद्धित्वात् और दुर्मतिःपदोंका समान अर्थ दीखते हुए भी इनमें थोड़ा फरक है। अकृतबुद्धित्वात् पद हेतुके रूपमें आया है और दुर्मतिः पद कर्ताके विशेषणके रूपमें आया है अर्थात् कर्ताके दुर्मति होनेमें अकृतबुद्धि ही हेतु है। तात्पर्य है कि बुद्धिको शुद्ध न करनेसे अर्थात् बुद्धिमें विवेक जाग्रत् न करनेसे ही वह दुर्मति है। अगर वह विवेकको जाग्रत् करता? तो वह दुर्मति नहीं रहता।केवल (शुद्ध) आत्मा कुछ नहीं

करता -- न करोति न लिप्यते (गीता 13। 31) परन्तु तादात्म्यके कारण मैं नहीं करता हूँ -- ऐसा बोध नहीं होता। बोध न होनेमें अकृतबुद्धि ही कारण है अर्थात् जिसने बुद्धिको शुद्ध नहीं किया है? वह दुर्मति ही अपनेको कर्ता मान लेता है जब कि शुद्ध आत्मामें कर्तृत्व नहीं है।केवलम् पद कर्मयोग और सांख्ययोग -- दोनोंमें ही आया है। प्रकृति और पुरुषके विवेकको लेकर कर्मयोग और सांख्ययोग चलते हैं। कर्मयोगमें सब क्रियाएँ

शरीर? मन? बुद्धि और इन्द्रियोंके द्वारा ही होती हैं? पर उनके साथ सम्बन्ध नहीं जुड़ता अर्थात् उनमें ममता नहीं होती। ममता न होनेसे शरीर? मन आदिकी संसारके साथ जो एकता है? वह एकता अनुभवमें आ जाती है। एकताका अनुभव होते ही स्वरूपमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। इसलिये कर्मयोगमें केवलैः पद शरीर? मन? बुद्धि और इन्द्रियोंके साथ दिया गया है -- कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि (गीता 5। 11)।सांख्ययोगमें

विवेकविचारकी प्रधानता है। जितने भी कर्म होते हैं? वे सब पाँच हेतुओंसे ही होते हैं? अपने स्वरूपसे नहीं। परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अपनेको कर्ता मान लेता है। विवेकसे मोह मिट जाता है। मोह मिटनेसे वह अपनेको कर्ता कैसे मान सकता है अर्थात् उसे अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है। इसलिये सांख्ययोगमें केवलम् पद स्वरूपके साथ दिया गया है -- केवलम् आत्मानम्।अब इसमें एक बात विशेष ध्यान देनेकी है कि कर्मयोगमें

केवल शब्द शरीर? मन आदिके साथ रहनेसे शरीर? मन? बुद्धि आदिके साथ अहम् भी संसारकी सेवामें लग जायगा तथा स्वरूप ज्योंकात्यों रह जायगा और सांख्ययोगमें स्वरूपके साथ केवल रहनेसे मैं निर्लेप हूँ? मैं शुद्धबुद्धमुक्त हूँ इस प्रकार सूक्ष्मरीतिसे अहम् की गंध रह जायगी। मैं निर्लेप रहूँ मेरेमें कर्तृत्व नहीं है -- ऐसी स्थिति बहुत कालतक रहनेसे यह अहम् भी अपनेआप गल जायगा अर्थात् अपने कारण प्रकृतिमें लीन हो जायगा। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें यह बताया कि शुद्ध स्वरूपको कर्ता देखनेवाला दुर्मति ठीक नहीं देखता। तो ठीक देखनेवाला कौन है -- इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।

भगवद गीता 18.15-16 - अध्याय 18 श्लोक 15-16 हिंदी और अंग्रेजी