।।18.24।।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।18.24।।

yat tu kāmepsunā karma sāhankāreṇa vā punaḥ kriyate bahulāyāsaṁ tad rājasam udāhṛitam

yat—which; tu—but; kāma-īpsunā—prompted by selfish desire; karma—action; sa-ahaṅkāreṇa—with pride; vā—or; punaḥ—again; kriyate—enacted; bahula-āyāsam—stressfully; tat—that; rājasam—in the nature of passion; udāhṛitam—is said to be

अनुवाद

।।18.24।।परन्तु जो कर्म भोगोंको चाहनेवाले मनुष्यके द्वारा अहंकार अथवा परिश्रमपूर्वक किया जाता है, वह राजस कहा गया है।

टीका

।।18.24।। व्याख्या --   यत्तु (टिप्पणी प0 906) कामेप्सुना कर्म -- हम कर्म करेंगे तो हमें पदार्थ मिलेंगे? सुखआराम मिलेगा? भोग मिलेंगे? आदरसम्मानबड़ाई मिलेगी आदि फलकी इच्छावाले व्यक्तिके द्वारा कर्म किया जाय।साहंकारेण -- लोगोंके सामने कर्म करनेसे लोग देखते हैं और वाहवाह करते हैं तो अभिमान आता है और जहाँ लोग सामने नहीं होते? वहाँ (एकान्तमें) कर्म करनेसे दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विलक्षणता? विशेषता

देखकर अभिमान आता है। जैसे -- दूसरे आदमी हमारी तरह सुचारुरूपसे साङ्गोपाङ्ग कार्य नहीं कर सकते हमारेमें काम करनेकी जो योग्यता? विद्या? चतुरता आदि है? वह हरेक आदमीमें नहीं मिलेगी हम जो भी काम करते हैं? उसको बहुत ही ईमानदारीसे और जल्दी करते हैं? आदिआदि। इस प्रकार अहंकारपूर्वक किया गया कर्म राजस कहलाता है।वा पुनः -- आगे भविष्यमें मिलनेवाले फलको लेकर (फलेच्छापूर्वक) कर्म किया जाय अथवा वर्तमानमें अपनी विशेषताको

लेकर (अहंकारपूर्वक) कर्म किया जाय -- इन दोनों भावोंमेंसे एक भाव होनेपर भी वह कर्म राजस हो जाता है? यह बतानेके लिये यहाँ वा पुनः पद आये हैं। तात्पर्य है कि फलेच्छा और अहंकार -- इन दोनोंमेंसे जब एक भाव होनेपर भी कर्म राजस हो जाता है? तब दोनों भाव होनेपर वह कर्म राजस हो ही जायगा। क्रियते बहुलायासम् -- कर्म करते समय हरेक व्यक्तिके शरीरमें परिश्रम तो होता ही है? पर जिस व्यक्तिमें शरीरके सुखआरामकी इच्छा

मुख्य होती है? उसको कर्म करते समय शरीरमें ज्यादा परिश्रम मालूम देता है।जिस व्यक्तिमें कर्मफलकी इच्छा तो मुख्य है? पर शारीरिक सुखआरामकी इच्छा मुख्य नहीं है? अर्थात् सुखआराम लेनेकी स्वाभाविक ही प्रकृति नहीं है? उसको कर्म करते हुए भी शरीरमें परिश्रम नहीं मालूम देता। कारण कि भीतरमें भोगों और संग्रहकी जोरदार कामना होनेसे उसकी वृत्ति कामनापूर्तिकी तरफ ही लगी रहती है शरीरकी तरफ नहीं। तात्पर्य है कि शरीरके

सुखआरामकी मुख्यता होनेसे फलेच्छाकी अवहेलना हो जाती है और फलेच्छाकी मुख्यता होनेसे शरीरके सुखआरामकी अवहेलना हो जाती है।लोगोंके सामने कर्म करते समय अहंकारजन्य सुखकी खुराक मिलनेसे और शरीरके सुखआरामकी मुख्यता न होनेसे राजस मनुष्यको कर्म करनेमें परिश्रम नहीं मालूम देता। परन्तु एकान्तमें कर्म करते समय अहंकारजन्य सुखकी खुराक न मिलनेसे और शरीरके सुखआरामकी मुख्यता होनेसे राजस मनुष्यको कर्म करनेमें ज्यादा परिश्रम

मालूम देता है।तद्राजसमुदाहृतम् -- ऐसे फलकी इच्छावाले मनुष्यके द्वारा अहंकार और परिश्रमपूर्वक किया हुआ जो कर्म है? वह राजस कहा गया है। सम्बन्ध --   अब तामस कर्मका वर्णन करते हैं।