Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।।

asakta-buddhiḥ sarvatra jitātmā vigata-spṛihaḥ naiṣhkarmya-siddhiṁ paramāṁ sannyāsenādhigachchhati

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Word Meanings

asakta-buddhiḥthose whose intellect is unattached
sarvatraeverywhere
jita-ātmāwho have mastered their mind
vigata-spṛihaḥfree from desires
naiṣhkarmya-siddhimstate of actionlessness
paramāmhighest
sanyāsenaby the practice of renunciation
adhigachchhatiattain
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अनुवाद

।।18.49।।जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है, जिसने शरीरको वशमें कर रखा है, जो स्पृहारहित है, वह मनुष्य सांख्ययोगके द्वारा नैष्कर्म्य-सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।

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टीका

।।18.49।। व्याख्या --   संन्यास(सांख्य) योगका अधिकारी होनेसे ही सिद्धि होती है। अतः उसका अधिकारी कैसा होना चाहिये -- यह बतानेके लिये श्लोकके पूर्वार्द्धमें तीन बातें बतायी हैं --,(1) असक्तबुद्धिः सर्वत्र -- जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है अर्थात् देश? काल? घटना? परिस्थिति? वस्तु? व्यक्ति? क्रिया? पदार्थ आदि किसीमें भी जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती।(2) जितात्मा -- जिसने शरीरपर अधिकार कर लिया है

अर्थात् जो आलस्य? प्रमाद आदिसे शरीरके वशीभूत नहीं होता? प्रत्युत इसको अपने वशीभूत रखता है। तात्पर्य है कि वह किसी कार्यको अपने सिद्धान्तपूर्वक करना चाहता है तो उस कार्यमें शरीर तत्परतासे लग जाता है और किसी क्रिया? घटना? आदिसे हटना,चाहता है तो वह वहाँसे हट जाता है। इस प्रकार जिसने शरीरपर विजय कर ली है? वह जितात्मा कहलाता है।(3) विगतस्पृहः -- जीवनधारणमात्रके लिये जिनकी विशेष जरूरत होती है? उन चीजोंकी

सूक्ष्म इच्छाका नाम स्पृहा है जैसे -- सागपत्ती कुछ मिल जाय? रूखीसूखी रोटी ही मिल जाय? कुछनकुछ खाये बिना हम कैसे जी सकते हैं जल पीये बिना हम कैसे रह सकते हैं ठण्डीके दिनोंमें कपड़े बिलकुल न हों तो हम कैसे जी सकते हैं सांख्ययोगका साधक इन जीवननिर्वाहसम्बन्धी आवश्यकताओंकी भी परवाह नहीं करता।तात्पर्य यह हुआ कि सांख्ययोगमें चलनेवालेको जडताका त्याग करना पड़ता है। उस जडताका त्याग करनेमें उपर्युक्त तीन बातें

आयी हैं। असक्तबुद्धि होनेसे वह जितात्मा हो जाता है? और जितात्मा होनेसे वह विगतस्पृह हो जाता है? तब वह सांख्ययोगका अधिकारी हो जाता है।नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति -- ऐसा असक्तबुद्धि? जितात्मा और विगतस्पृह पुरुष सांख्ययोगके द्वारा परम नैष्कर्म्यसिद्धिको अर्थात् नैष्कर्म्यरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है। कारण कि क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है और जब स्वयंका उस क्रियाके साथ लेशमात्र

भी सम्बन्ध नहीं रहता? तब कोई भी क्रिया और उसका फल उसपर किञ्चिन्मात्र भी लागू नहीं होता। अतः उसमें जो स्वाभाविक? स्वतःसिद्ध निष्कर्मता -- निर्लिप्तता है? वह प्रकट हो जाती है। सम्बन्ध --   अब उस परम सिद्धिको प्राप्त करनेकी विधि बतानेकी प्रतिज्ञा करते हैं।

भगवद गीता 18.49 - अध्याय 18 श्लोक 49 हिंदी और अंग्रेजी