।।2.1।।
सञ्जय उवाच तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।2.1।।
sañjaya uvācha taṁ tathā kṛipayāviṣhṭamaśhru pūrṇākulekṣhaṇam viṣhīdantamidaṁ vākyam uvācha madhusūdanaḥ
sañjayaḥ uvācha—Sanjay said; tam—to him (Arjun); tathā—thus; kṛipayā—with pity; āviṣhṭam—overwhelmed; aśhru-pūrṇa—full of tears; ākula—distressed; īkṣhaṇam—eyes; viṣhīdantam—grief-stricken; idam—these; vākyam—words; uvācha—said; madhusūdanaḥ—Shree Krishn, slayer of the Madhu demon
अनुवाद
।।2.1।। संजय बोले - वैसी कायरता से आविष्ट उन अर्जुन के प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं और आँसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है, भगवान् मधुसूदन ये (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
टीका
2.1।। व्याख्या--'तं तथा कृपयाविष्टम्'--अर्जुन रथमें सारथिरूपसे बैठे हुए भगवान्को यह आज्ञा देते हैं कि हे अच्युत! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये ,जिससे मैं यह देख लूँ कि इस युद्धमें मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं? अर्थात् मेरे-जैसे शूरवीरके साथ कौन-कौन-से योद्धा साहस करके लड़ने आये हैं? अपनी मौत सामने दीखते हुए भी मेरे साथ लड़नेकी उनकी हिम्मत कैसे हुई? इस प्रकार जिस अर्जुनमें युद्धके
लिये इतना उत्साह था, वीरता थी, वे ही अर्जुन दोनों सेनाओंमें अपने कुटुम्बियोंको देखकर उनके मरनेकी आशंकासे मोहग्रस्त होकर इतने शोकाकुल हो गये हैं कि उनका शरीर शिथिल हो रहा है, मुख सूख रहा है, शरीरमें कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथसे धनुष गिर रहा है, त्वचा जल रही है, खड़े रहनेकी भी शक्ति नहीं रही है और मन भी भ्रमित हो रहा है। कहाँ तो अर्जुनका यह स्वभाव कि 'न दैन्यं न पलायनम्' और कहाँ अर्जुनका
कायरताके दोषसे शोकाविष्ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ जाना! बड़े आश्चर्यके साथ सञ्जय यही भाव उपर्युक्त पदोंसे प्रकट कर रहे हैं। पहले अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें भी सञ्जयने अर्जुनके लिये 'कृपया परयाविष्टः' पदोंका प्रयोग किया है। 'अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्'--अर्जुन-जैसे महान् शूरवीरके भीतर भी कौटुम्बिक मोह छा गया और नेत्रोंमें आँसू भर आये! आँसू भी इतने ज्यादा भर आये कि नेत्रोंसे पूरी तरह देख भी नहीं सकते। 'विषीदन्तमिदं
वाक्यमुवाच मधुसूदनः'--इस प्रकार कायरताके कारण विषाद करते हुए अर्जुनसे भगवान् मधुसूदनने ये (आगे दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें कहे जाने-वाले) वचन कहे। यहाँ 'विषीदन्तमुवाच' कहनेसे ही काम चल सकता था, 'इदं वाक्यम्' कहनेकी जरूरत ही नहीं थी; क्योंकि 'उवाच' क्रियाके अन्तर्गत ही 'वाक्यम्' पद आ जाता है। फिर भी 'वाक्यम्' पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्का यह वचन, यह वाणी बड़ी विलक्षण है। अर्जुनमें धर्मका बाना पहनकर
जो कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आ गयी थी ,उसपर यह भगवद्वाणी सीधा आघात पहुँचानेवाली है। अर्जुनका युद्धसे उपराम होनेका जो निर्णय था उसमें खलबली मचा देनेवाली है। अर्जुनको अपने दोषका ज्ञान कराकर अपने कल्याणकी जिज्ञासा जाग्रत् करा देनेवाली है। इस गम्भीर अर्थवाली वाणीके प्रभावसे ही अर्जुन भगवान्का शिष्यत्व ग्रहण करके उनके शरण हो जाते हैं (2। 7)। सञ्जयके द्वारा 'मधुसूदनः' पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण
मधु नामक दैत्यको मारनेवाले अर्थात् दुष्ट स्वभाववालोंका संहार करनेवाले हैं। इसलिये वे दुष्ट स्वभाववाले दुर्योधनादिका नाश करवाये बिना रहेंगे नहीं। सम्बन्ध--भगवान्ने अर्जुनके प्रति कौनसे वचन कहे--इसे आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।