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देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।

dehī nityam avadhyo ’yaṁ dehe sarvasya bhārata tasmāt sarvāṇi bhūtāni na tvaṁ śhochitum arhasi

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Word Meanings

dehīthe soul that dwells within the body
nityamalways
avadhyaḥimmortal
ayamthis soul
dehein the body
sarvasyaof everyone
bhāratadescendant of Bharat, Arjun
tasmāttherefore
sarvāṇifor all
bhūtāniliving entities
nanot
tvamyou
śhochitummourn
arhasishould
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अनुवाद

।।2.30।। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सबके देहमें यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।  

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टीका

2.30।। व्याख्या-- 'देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत'-- मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि स्थावर-जङ्गम् सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंमें यह देही नित्य अवध्य अर्थात् अविनाशी है।    'अवध्यः'--  शब्दके दो अर्थ होते हैं (1) इसका वध नहीं करना चाहिये और (2) इसका वध हो ही नहीं सकता। जैसे गाय अवध्य है अर्थात् कभी किसी भी अवस्थामें गायको नहीं मारना चाहिये; क्योंकि गायको मारनेमें बड़ा भारी दोष है,

पाप है। परन्तु 'देहीके विषयमें देहीका वध नहीं करना चाहिये'--ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत इस देहीका वध (नाश) कभी किसी भी तरहसे हो ही नहीं सकता और कोई कर भी नहीं सकता--  'विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति'  (2। 17)।      'तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि'-- इसलिये तुम्हें किसी भी प्राणीके लिये शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस देहीका विनाश कभी हो ही नहीं सकता और विनाशी देह क्षणमात्र भी स्थिर

नहीं रहता। यहाँ  'सर्वाणि भूतानि' पदोंमें बहुवचन देनेका आशय है कि कोई भी प्राणी बाकी न रहे अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये शोक नहीं करना चाहिये। शरीर विनाशी ही है; क्योंकि उसका स्वभाव ही नाशवान् है। वह प्रतिक्षण ही नष्ट हो रहा है। परन्तु जो अपना नित्य-स्वरूप है, उसका कभी नाश होता ही नहीं। अगर इस वास्तविकको जान लिया जाय तो फिर शोक होना सम्भव ही नहीं है।  प्रकरण सम्बन्धी विशेष बात  यहाँ ग्यारहवें श्लोकसे

तीसवें श्लोकतकका जो प्रकरण है, यह विशेषरूपसे देही-देह, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, अविनाशी-विनाशी--इन दोनोंके विवेकके लिये अर्थात् इन दोनोंको अलग-अलग बतानेके लिये ही है। कारण कि जबतक देही अलग है और 'देह अलग है'--यह विवेक नहीं होगा, तबतक कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कोई-सा भी योग अनुष्ठानमें नहीं आयेगा। इतना ही नहीं, स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके लिये भी देही-देहके भेदको समझना आवश्यक है। कारण कि देहसे

अलग देही न हो, तो देहके मरनेपर स्वर्ग कौन जायगा? अतः जितने भी आस्तिक दार्शनिक हैं वे चाहे अद्वैतवादी हों, चाहे द्वैतवादी हों; किसी भी मतके क्यो न हों, सभी शरीरी-शरीरके भेदको मानते ही हैं। यहाँ भगवान् इसी भेदको स्पष्ट करना चाहते हैं। इस प्रकरणमें भगवान्ने जो बात कही है, वह प्रायः सम्पूर्ण मनुष्योंके अनुभवकी बात है। जैसे, देह बदलता है और देही नहीं बदलता। अगर यह देही बदलता तो देहके बदलनेको कौन जानता?

पहले बाल्यावस्था थी, फिर जवानी आयी; कभी बीमारी आयी, कभी बीमारी चली गयी--इस तरह अवस्थाएँ तो बदलती रहती हैं पर इन सभी अवस्थाओंको जाननेवाला देही वही रहता है। अतः बदलनेवाला और न बदलनेवाला--ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते। इसका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है। इसलिये भगवान्ने इस प्रकरणमें आत्मा-अनात्मा, ब्रह्म-जीव, प्रकृति-पुरुष, जड-चेतन, माया-अविद्या आदि दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग नहीं किया है  (टिप्पणी प0 71.1) ।

कारण कि लोगोंने दार्शनिक बातें केवल सीखनेके लिये मान रखी हैं, उन बातोंको केवल पढ़ाईका विषय मान रखा है। इसको दृष्टिमें रखकर भगवान्ने इस प्रकरणमें दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग न करके देह-देही शरीर-शरीरी, असत्-सत् विनाशी-अविनाशी शब्दोंका ही प्रयोग किया है। जो इन दोनोंके भेदको ठीक-ठीक जान लेता है ,उसको कभी किञ्चिन्मात्र भी शोक नहीं हो सकता। जो केवल दार्शनिक बातें सीख लेते हैं, उनका शोक दूर नहीं होता। एक छहों

दर्शनोंकी पढ़ाई करना होता है और एक अनुभव करना होता है। ये दोनों बातें अलग-अलग हैं और इनमें बड़ा भारी अन्तर है। पढ़ाईमें ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति और संसार ये सभी ज्ञानके विषय होते हैं अर्थात् पढ़ाई करनेवाला तो ज्ञाता होता है और ब्रह्म, ईश्वर आदि इ न्द्रियों और अन्तःकरणके विषय होते हैं। पढ़ाई करनेवाला तो जानकारी बढ़ाना चाहता है, विद्याका संग्रह करना चाहता है, पर जो साधक मुमुक्षु जिज्ञासु और भक्त

होता है, वह अनुभव करना चाहता है, अर्थात् प्रकृति और संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके और अपने-आपको जानकर ब्रह्मके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहता है, ईश्वरके शरण होना चाहता है।  सम्बन्ध -- अर्जुनके मनमें कुटुम्बियोंके मरनेका शोक था और गुरुजनोंको मारनेके पापका भय था अर्थात् यहाँ कुटुम्बियोंका वियोग हो जायेगा तो उनके अभावमें दुःख पाना पड़ेगा यह शोक था और परलोकमें पापके कारण नरक आदिका दुःख भोगना पड़ेगा यह

भय था। अतः भगवान्ने अर्जुनका शोक दूर करनेके लिये ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतकका प्रकरण कहा और अब अर्जुनका भय दूर करनेके लिये क्षात्रधर्मविषयक आगेका प्रकरण आरम्भ करते हैं।

भगवद गीता 2.30 - अध्याय 2 श्लोक 30 हिंदी और अंग्रेजी