।।2.68।।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.68।।

tasmād yasya mahā-bāho nigṛihītāni sarvaśhaḥ indriyāṇīndriyārthebhyas tasya prajñā pratiṣhṭhitā

tasmāt—therefore; yasya—whose; mahā-bāho—mighty-armed one; nigṛihītāni—restrained; sarvaśhaḥ—completely; indriyāṇi—senses; indriya-arthebhyaḥ—from sense objects; tasya—of that person; prajñā—transcendental knowledge; pratiṣhṭhitā—remains fixed

अनुवाद

।।2.68।। इसलिये हे महाबाहो ! जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सर्वथा निगृहीत (वशमें की हुई) हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।  

टीका

2.68।। व्याख्या-- 'तस्माद्यस्य ৷৷. प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'-- साठवें श्लोकसे मन और इन्द्रियोंको वशमें करनेका जो विषय चला आ रहा है, उसका उपसंहार करते हुए  'तस्मात्'  पदसे कहते हैं कि जिसके मन और इन्द्रियोंमें संसारका आकर्षण नहीं रहा है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।  यहाँ 'सर्वशः' पद देनेका तात्पर्य है कि संसारके साथ व्यवहार करते हुए अथवा एकान्तमें चिन्तन करते हुए किसी भी अवस्थामें उसकी इन्द्रियाँ भोगोंमें,

विषयोंमें प्रवृत्त नहीं होतीं। व्यवहारकालमें कितने ही विषय उसके सम्पर्कमें क्यों न आ जायँ, पर वे विषय उसको विचलित नहीं कर सकते। उसका मन भी इन्द्रियके साथ मिलकर उसकी बुद्धिको विचलित नहीं कर सकता। जैसे पहाड़को कोई डिगा नहीं सकता, ऐसे ही उसकी बुद्धिमें इतनी दृढ़ता आ जाती है कि उसको मन किसी भी अवस्थामें डिगा नहीं सकता। कारण कि उसके मनमें विषयोंका महत्व नहीं रहा।  'निगृहीतानि' का तात्पर्य है कि इन्द्रियाँ

विषयोंसे पूरी तरहसे वशमें की हुई है अर्थात् विषयोंमें उनका लेशमात्र भी राग, आसक्ति, खिंचाव नहीं रहा है। जैसे साँपके दाँत निकाल दिये जायँ, तो फिर उसमें जहर नहीं रहता। वह किसीको काट भी लेता है तो उसका कोई असर नहीं होता। ऐसे ही इन्द्रियोंको रागद्वेषसे रहित कर देना ही मानो उनके जहरीले दाँत निकाल देना है। फिर उन इन्द्रियोंमें यह ताकत नहीं रहती कि वे साधकको पतनके मार्गमें ले जायँ। इस श्लोकका तात्पर्य यह

है कि साधकको दृढ़तासे यह निश्चय कर लेना चाहिये कि मेरा लक्ष्य परमात्माकी प्राप्ति करना है भोग भोगना और संग्रह करना मेरा लक्ष्य नहीं है। अगर ऐसी सावधानी साधकमें निरन्तर बनी रहे तो उसकी बुद्धि स्थिर हो जायगी। सम्बन्ध-- जिसकी इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें हैं, उसमें और साधारण मनुष्योंमें क्या अन्तर है--इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।