अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।3.1।। व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्िचत्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।3.2।।
arjuna uvācha jyāyasī chet karmaṇas te matā buddhir janārdana tat kiṁ karmaṇi ghore māṁ niyojayasi keśhava vyāmiśhreṇeva vākyena buddhiṁ mohayasīva me tad ekaṁ vada niśhchitya yena śhreyo ’ham āpnuyām
Word Meanings
अनुवाद
।।3.1 -- 3.2।। अर्जुन बोले -- हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि- (ज्ञान-) को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव ! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? आप अपने मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अतः आप निश्चय करके उस एक बात को कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ। ।।3.1 -- 3.2।। अर्जुन बोले -- हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि- (ज्ञान-) को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? आप अपने मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अतः आप निश्चय करके एक बात को कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ।
टीका
।।3.1।। व्याख्या-- 'जनार्दन'-- इस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्री कृष्ण! आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं; अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे।'ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते ৷৷. नियोजयसि केशव'-- मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल
हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी। इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता, तब वह अच्छाईका चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईकी वेशमें बुराई आती है। जो बुराई भलाईके वशमें आती है, उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है। यहाँ अर्जुनमें भी हिंसा-त्यागरूप भलाईके वशेमें कर्तव्य-त्यागरूप
बुराई आयी है। अतः वे कर्तव्य-कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मान रहे हैं। इसी कारण वे यहाँ प्रश्न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? ।।3.2।। व्याख्या-- 'जनार्दन'-- इस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्री कृष्ण! आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं; अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे।'ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते ৷৷. नियोजयसि केशव'-- मनुष्यके
अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी। इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता, तब वह अच्छाईका
चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईकी वेशमें बुराई आती है। जो बुराई भलाईके वशमें आती है, उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है। यहाँ अर्जुनमें भी हिंसा-त्यागरूप भलाईके वशेमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। अतः वे कर्तव्य-कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मान रहे हैं। इसी कारण वे यहाँ प्रश्न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?