।।3.17।।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3.17।।
yas tvātma-ratir eva syād ātma-tṛiptaśh cha mānavaḥ ātmanyeva cha santuṣhṭas tasya kāryaṁ na vidyate
yaḥ—who; tu—but; ātma-ratiḥ—rejoice in the self; eva—certainly; syāt—is; ātma-tṛiptaḥ—self-satisfied; cha—and; mānavaḥ—human being; ātmani—in the self; eva—certainly; cha—and; santuṣhṭaḥ—satisfied; tasya—his; kāryam—duty; na—not; vidyate—exist
अनुवाद
।।3.17।। जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
टीका
।।3.17।। व्याख्या--'यस्त्वात्मरतिरेव ৷৷. च संतुष्टस्तस्य'--यहाँ 'तु' पद पूर्वश्लोकमें वर्णित अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यसे कर्तव्यकर्मके द्वारा सिद्धिको प्राप्त महापुरुषकी विलक्षणता बतानेके लिये प्रयुक्त हुआ है।जबतक मनुष्य अपना सम्बन्ध संसारसे मानता है, तबतक वह अपनी 'रति' (प्रीति) इन्द्रियोंके भोगोंसे एवं स्त्री, पुत्र, परिवार आदिसे, 'तृप्ति' भोजन (अन्न-जल) से तथा 'सन्तुष्टि' धनसे मानता
है। परन्तु इसमें उसकी प्रीति, तृप्ति और सन्तुष्टि न तो कभी पूर्ण ही होती है और न निरन्तर ही रहती है। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील, जड और नाशवान् है तथा 'स्वयं' सदा एकरस रहनेवाला, चेतन और अविनाशी है। तात्पर्य है कि 'स्वयं' का संसारके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। अतः 'स्वयं' की प्रीति, तृप्ति और सन्तुष्टि संसारसे कैसे हो सकती है?किसी भी मनुष्यकी प्रीति संसारमें सदा नहीं रहती--यह सभीका अनुभव
है। विवाहके समय स्त्री और पुरुषमें परस्पर जो प्रीति या आकर्षण प्रतीत होता है, वह एकदो सन्तान होनेके बाद नहीं रहता। कहींकहीं तो स्त्रियाँ अपने वृद्ध पतिके लिये यहाँतक कह देती हैं कि बुड्ढा मर जाय तो अच्छा है भोजन करनेसे प्राप्त तृप्ति भी कुछ ही समयके लिये प्रतीत होती है मनुष्यको धनप्राप्तिमें जो सन्तुष्टि प्रतीत होती है वह भी क्षणिक होती है क्योंकि धनकी लालसा सदा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है। इसलिये
कमी निरन्तर बनी रहती है। तात्पर्य यही है कि संसारमें प्रीति तृप्ति और संतुष्टि कभी स्थायी नहीं रह सकती। मनुष्यको सांसारिक वस्तुओंमें प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिकी केवल प्रतीति होती है, वास्तवमें होती नहीं, अगर होती तो पुनः अरति, अतृप्ति एवं असन्तुष्टि नहीं होती। स्वरूपसे प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि स्वतःसिद्ध है। स्वरूप सत् है। सत्में कभी कोई अभाव नहीं होता--'नाभावो विद्यते सतः'(गीता 2। 16) और अभावके
बिना कोई कामना पैदा नहीं होती। इसलिये स्वरूपमें निष्कामता स्वतःसिद्ध है। परन्तु जब जीव भूलसे संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिको संसारमें ढूँढ़ने लगता है और इसके लिये सांसारिक वस्तुओंकी कामना करने लगता है। कामना करनेके बाद जब वह वस्तु (धनादि) मिलती है, तब मनमें स्थित कामनाके निकलनेके बाद (दूसरी कामनाके पैदा होनेसे पहले) उसकी अवस्था निष्काम हो जाती है और उसी निष्कामताका
उसे सुख होता है; परन्तु उस सुखको मनुष्य भूलसे सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिसे उत्पन्न हुआ मान लेता है तथा उस सुखको ही प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिके नामसे कहता है। अगर वस्तुकी प्राप्तिसे वह सुख होता, तो उसके मिलनेके बाद उस वस्तुके रहते हुए सदा सुख रहता, दुःखकभी न होता और पुनः वस्तुकी कामना उत्पन्न न होती। परन्तु सांसारिक वस्तुओंसे कभी भी पूर्ण (सदाके लिये) प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि प्राप्त न हो सकनेके
कारण तथा संसारसे ममताका सम्बन्ध बना रहनेके कारण वह पुनः नयी-नयी कामनाएँ करने लगता है। कामना उत्पन्न होनेपर अपनेमें अभावका तथा काम्य वस्तुके मिलनेपर अपनेमें पराधीनताका अनुभव होता है। अतः कामनावाला मनुष्य सदा दुःखी रहता है।यहाँ यह बात ध्यान देनेकी है कि साधक तो उस सुखका मूल कारण निष्कामताको मानते हैं और दुःखोंका कारण कामनाको मानते हैं, परन्तु संसारमें आसक्त मनुष्य वस्तुओंकी प्राप्तिसे सुख मानते हैं
और वस्तुओंकी अप्राप्तिसे दुःख मानते हैं। यदि आसक्त मनुष्य भी साधकके समान ही यथार्थ दृष्टिसे देखे तो उसको शीघ्र ही स्वतःसिद्ध निष्कामताका अनुभव हो सकता है। सकाम मनुष्योंको कर्मयोगका अधिकारी कहा गया है--