।।3.19।।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।3.19।।

tasmād asaktaḥ satataṁ kāryaṁ karma samāchara asakto hyācharan karma param āpnoti pūruṣhaḥ

tasmāt—therefore; asaktaḥ—without attachment; satatam—constantly; kāryam—duty; karma—action; samāchara—perform; asaktaḥ—unattached; hi—certainly; ācharan—performing; karma—work; param—the Supreme; āpnoti—attains; pūruṣhaḥ—a person

अनुवाद

।।3.19।। इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है।

टीका

3.19।। व्याख्या-- 'तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर'--  पूर्वश्लोकोंसे इस श्लोकका सम्बन्ध बतानेके लिये यहाँ 'तस्मात् पद आया है। पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने कहा कि अपने लिये कर्म करनेकी कोई आवश्यकता न रहनेपर भी सिद्ध महापुरुषके द्वारा लोक-संग्रहार्थ क्रियाएँ हुआ करती हैं। इसलिये अर्जुनको भी उसी तरह (निष्काम-भावसे) कर्तव्य-कर्म करते हुए परमात्माको प्राप्त करनेकी आज्ञा देनेके लिये भगवान्ने 'तस्मात्'पदका

प्रयोग किया है। कारण कि अपने स्वरूप 'स्व' के लिये कर्म करने और न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं है। कर्म सदैव 'पर'-(दूसरों-) के लिये होता है, 'स्व'के लिये नहीं। अतः दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्म करनेका राग मिट जाता है और स्वरूपमें स्थिति हो जाती है।अपने स्वरूपसे विजातीय (जड) पदार्थोंके प्रति आकर्षणको 'आसक्ति' कहते हैं। आसक्तिरहित होनेके लिये आसक्तिके कारणको जानना आवश्यक है। 'मैं शरीर हूँ' और 'शरीर मेरा

है'-- ऐसा माननेसे शरीरादि नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व अन्तःकरणमें अङ्कित हो जाता है। इसी कारण उन पदार्थोंमें आसक्ति हो जाती है। आसक्ति ही पतन करनेवाली है, कर्म नहीं। आसक्तिके कारण ही मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जड पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध मानकर अपने आराम, सुख-भोगके लिये तरह-तरहके कर्म करता है। इस प्रकार जडतासे आसक्तिपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही मनुष्यके बारम्बार जन्म-मरणका कारण होता है--

'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता 13। 21)। आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।आसक्तिवाला मनुष्य दूसरोंका हित नहीं कर सकता, जबकि आसक्तिरहित मनुष्यसे स्वतःस्वाभाविक प्राणिमात्रका हित होता है। उसके सभी कर्म केवल दूसरोंके हितार्थ होते हैं।संसारसे प्राप्त सामग्री-(शरीरादि-) से हमने अभीतक अपने लिये ही कर्म किये हैं। उसको अपने ही सुखभोग और संग्रहमें लगाया है। इसलिये संसारका

हमारेपर ऋण है, जिसे उतारनेके लिये केवल संसारके हितके लिये कर्म करना आवश्यक है। अपने लिये (फलकी कामना रखकर) कर्म करनेसे पुराना ऋण तो समाप्त होता नहीं, नया ऋण और उत्पन्न हो जाता है। ऋणसे मुक्त होनेके लिये बार-बार संसारमें आना पड़ता है। केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और अपने लिये कुछ न करने तथा कुछ न चाहनेसे नया ऋण उत्पन्न नहीं होता। इस तरह जब पुराना ऋण समाप्त हो

जाता है और नया ऋण उत्पन्न नहीं होता, तब बन्धनका कोई कारण न रहनेसे मनुष्य स्वतः मुक्त हो जाता है।कोई भी कर्म निरन्तर नहीं रहता पर आसक्ति (अन्तःकरणमें) निरन्तर रहा करती है, इसलिये भगवान् 'सततम् असक्तः' पदोंसे निरन्तर आसक्तिरहित होनेके लिये कहते हैं। 'मेरेको कहीं भी आसक्त नहीं होना है'--ऐसी जागृति साधकको निरन्तर रखनी चाहिये। निरन्तर आसक्ति-रहित रहते हुए जो विहित-कर्म सामने आ जाय, उसे कर्तव्यमात्र समझकर

कर देना चाहिये--ऐसा उपर्युक्त पदोंका भाव है।वास्तवमें देखा जाय तो किसीके भी अन्तःकरणमें आसक्ति निरन्तर नहीं रहती। जब संसार निरन्तर नहीं रहता, प्रतिक्षण बदलता रहता है, तब उसकी आसक्ति निरन्तर कैसे रह सकती है? ऐसा होते हुए भी मानेहुए 'अहम्' के साथ आसक्ति निरन्तर रहती हुई प्रतीत होती है।'कार्यम्' अर्थात् कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको कर सकते हैं और जिसको अवश्य करना चाहिये। दूसरे शब्दोंमें कर्तव्यका अर्थ

होता है--अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करना अर्थात् दूसरोंकी उस शास्त्रविहित न्याययुक्त माँगको पूरा करना, जिसे पूरा करनेकी सामर्थ्य हमारेमें है। इस प्रकार कर्तव्यका सम्बन्ध परहितसे है।कर्तव्यका पालन करनेमें सब स्वतन्त्र और समर्थ हैं कोई पराधीन और असमर्थ नहीं है। हाँ, प्रमाद और आलस्यके कारण अकर्तव्य करनेका बुरा अभ्यास (आदत) हो जानेसे तथा फलकी इच्छा रहनेसे ही वर्तमानमें कर्तव्य-पालन कठिन मालूम

देता है, अन्यथा कर्तव्य-पालनके समान सुगम कुछ नहीं है। कर्तव्यका सम्बन्ध परिस्थितिके अनुसार होता है। मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें स्वतन्त्रतापूर्वक कर्तव्यका पालन कर सकता है। कर्तव्यका पालन करनेसे ही आसक्ति मिटती है। अकर्तव्य करने तथा कर्तव्य न करनेसे आसक्ति और बढ़ती है। कर्तव्य अर्थात् दूसरोंके हितार्थ कर्म करनेसे वर्तमानकी आसक्ति और कुछ न चाहनेसे भविष्यकी आसक्ति मिट जाती है।'समाचर' पदका तात्पर्य

है कि कर्तव्य-कर्म बहुत सावधानी, उत्साह तथा तत्परतासे विधिपूर्वक करने चाहिये। कर्तव्य-कर्म करनेमें थोड़ी भी असावधानी होनेपर कर्मयोगकी सिद्धिमें बाधा लग सकती है। वर्ण, आश्रम, प्रकृति (स्वभाव) और परिस्थितिके अनुसार जिस मनुष्यके लिये जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म बताया गया है, अवसर प्राप्त होनेपर उसके लिये वही 'सहज कर्म' है। सहज कर्ममें यदि कोई दोष दिखायी दे, तो भी उसका त्याग नहीं करना चाहिये (गीता 18।

48) ;क्योंकि सहज कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता (गीता 18। 47) इसीलिये यहाँ भगवान् अर्जुनको मानो यह कह रहे हैं कि तू क्षत्रिय है; अतः युद्ध करना (घोर दीखनेपर भी) तेरा सहज कर्म है; घोर कर्म नहीं। अतः सामने आये हुए सहज कर्मको अनासक्त होकर कर देना चाहिये। अनासक्त होनेपर ही समता प्राप्त होती है।विशेष बातजब जीव मनुष्ययोनिमें लेता है, तब उसको शरीर धन जमीन मकान आदि सब सामग्री मिलती है और जब

वह यहाँसे जाता है तब सब सामग्री यहीं छूट जाती है। इस सीधी-सादी बातसे यह सहज ही सिद्ध होता है कि शरीरादि सब सामग्री मिली हुई है, अपनी नहीं है। जैसे मनुष्य काम करनेके लिये किसी कार्यालय (आफिस) में जाता है तो उसे कुर्सी, मेज, कागज आदि सब सामग्री कार्यालयका काम करनेके लिये ही मिलती है, अपनी मानकर घर ले जानेके लिये नहीं। ऐसे ही मनुष्यको संसारमें शरीरादि सब सामग्री संसारका काम (सेवा) करनेके लिये ही मिली

है अपनी माननेके लिये नहीं। मनुष्य तत्परता और उत्साहपूर्वक कार्यालयका काम करता है तो उस कामके बदलेमें उसे वेतन मिलता है। काम कार्यालयके लिये होता है और वेतन अपने लिये। इसी प्रकार संसारके लिये ही सब काम करनेसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और योग (परमात्माके साथ अपने नित्य सम्बन्ध) का अनुभव हो जाता है। 'कर्म' और 'योग' दोनों मिलकर कर्मयोग कहलाता है। कर्म संसारके लिये होता है और योग अपने लिये। यह

योग ही मानो वेतन है।संसार साधनका क्षेत्र है। यहाँ प्रत्येक सामग्री साधनके लिये मिलती है, भोग और संग्रहके लिये कदापि नहीं। सांसारिक सामग्री अपनी और अपने लिये है ही नहीं। अपनी वस्तु--परमात्म-तत्त्व मिलनेपर फिर अन्य किसी वस्तुको पानेकी इच्छा नहीं रहती (गीता 6। 22)। परन्तु सांसारिक वस्तुएँ चाहे जितनी प्राप्त हो जायँ, पर उन्हें पानेकी इच्छा कभी मिटती नहीं, प्रत्युत और बढ़ती है।जब मनुष्य मिली हुई वस्तुको

अपनी और अपने लिये मान लेता है, तब वह अपनी इस भूलके कारण बँध जाता है। इस भूलको मिटानेके लिये कर्मयोगका अनुष्ठान ही सुगम और श्रेष्ठ उपाय है। कर्मयोगी किसी भी वस्तुको अपनी और अपने लिये न मानते हुए उसे दूसरोंकी सेवामें (उन्हींकी मानकर) लगाता है। अतः वह सुगमतापूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।कर्म तो सभी प्राणी किया करते हैं, पर साधारण प्राणी और कर्मयोगीद्वारा किये गये कर्मोंमें बड़ा भारी अन्तर होता

है। साधारण मनुष्य (कर्मी) आसक्ति, ममता, कामना आदिको साथ रखते हुए कर्म करता है और कर्मयोगी आसक्ति ममता कामना आदिको छोड़कर कर्म करता है। कर्मीके कर्मोंका प्रवाह अपनी तरफ होता है और कर्मयोगीके कर्मोंका प्रवाह संसारकी तरफ। इसलिये कर्मी बँधता है और कर्मयोगी मुक्त होता है।'असक्तो ह्याचरन्कर्म'-- मनुष्य ही आसक्तिपूर्वक संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ता है, संसार नहीं। अतः मनुष्यका कर्तव्य है कि वह संसारके हितके

लिये ही सब कर्म करे और बदलेमें उनका कोई फल न चाहे। इस प्रकार आसक्तिरहित होकर अर्थात् मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिये, इस भावसे संसारके लिये कर्म करनेसे संसारसे स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।कर्मयोगी संसारकी सेवा करनेसे वर्तमानकी वस्तुओंसे और कुछ न चाहनेसे भविष्यकी वस्तुओंसे सम्बन्धविच्छेद करता है।मेलेमें स्वयंसेवक अपना कर्तव्य समझकर दिनभर यात्रियोंकी सेवा करते हैं और बदलेमें किसीसे कुछ नहीं चाहते;

अतः रात्रिमें सोते समय उन्हें किसीकी याद नहीं आती। कारण कि सेवा करते समय उन्होंने किसीसे कुछ चाहा नहीं। इसी प्रकार जो सेवाभावसे दूसरोंके लिये ही सब कर्म करता है और किसीसे मान, बड़ाई आदि कुछ नहीं चाहता, उसे संसारकी याद नहीं आती। वह सुगमतापूर्वक संसार0-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। कर्म तो सभी किया करते हैं, पर कर्मयोग तभी होता है, जब आसक्तिरहित होकर दूसरोंके लिये कर्म किये जाते हैं। आसक्ति शास्त्रहित

कर्तव्य-कर्म करनेसे ही मिट सकती है-- 'धर्म तें बिरति' (मानस 3। 16। 1)। शास्त्र-निषिद्ध कर्म करनेसे आसक्ति कभी नहीं मिट सकती। 'परमाप्नोति पुरुषः'--जैसे तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने 'परम्' पदसे सांख्ययोगीके परमात्माको प्राप्त होनेकी बात कही, ऐसी ही यहाँ 'परम्' पदसे कर्मयोगीके परमात्माको प्राप्त होनेकी बात कहते हैं। तात्पर्य यह है कि साधक (रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार) किसी भी मार्ग--कर्मयोग,

ज्ञानयोग या भक्तियोगपर क्यों न चले, उसके द्वारा प्राप्तव्य वस्तु एक परमात्मा ही हैं (गीता 5। 45)। प्राप्तव्य तत्त्व वही हो सकता है, जिसकी प्राप्तिमें विकल्प, सन्देह और निराशा न हो तथा जो सदा हो, सब देशमें हो, सब कालमें हो, सभीके लिये हो, सबका अपना हो और जिस तत्त्वसे कोई कभी किसी अवस्थामें किञ्चिन्मात्र भी अलग न हो सके अर्थात् जो सबको सदा अभिन्नरूपसे स्वतः प्राप्त हो।  शङ्का कर्म करते हुए कर्मयोगीका

कर्तृत्वाभिमान कैसे मिट सकता? क्योंकि कर्तृत्वाभिमान मिटे बिना परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता।  समाधान--साधारण मनुष्य सभी कर्म अपने लिये करता है। अपने लिये कर्म करनेसे मनुष्यमें कर्तृत्वाभिमान रहता है। कर्मयोगी कोई भी क्रिया अपने लिये नहीं करता। वह ऐसा मानता है कि संसारसे शरीर, इन्द्रियाँमन, बुद्धि, पदार्थ, रुपये आदि जो कुछ सामग्री मिली है, वह सब संसारकी ही है, अपनी नहीं। जब कभी अवसर मिलता है,

तभी वह सामग्री, समय, सामर्थ्य आदिको संसारकी सेवामें लगा देता है, उनको संसारकी सेवामें लगाते हुए कर्मयोगी ऐसा मानता है कि संसारकी वस्तु ही संसारकी सेवामें लगा रहा हूँ अर्थात् सामग्री, समय, सामर्थ्य, आदि उन्हींके हैं, जिनकी सेवा हो रही है। ऐसा माननेसे कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता।कर्तृत्वमें कारण है-- भोक्तृत्व। कर्मयोगी भोगकी आशा रखकर कर्म करता ही नहीं। भोगकी आशावाला मनुष्य कर्मयोगी नहीं होता। जैसे अपने

हाथोंसे अपना ही मुख धोनेपर यह भाव नहीं आता कि मैंने बड़ा उपकार किया है; क्योंकि मनुष्य हाथ और मुख दोनोंको अपने ही अंग मानता है, ऐसे ही कर्मयोगी भी शरीरको संसारका ही अङ्ग मानता है। अतः यदि अङ्गने अङ्गीकी ही सेवा की है तो उसमें कर्तृत्वाभिमान कैसा ?