।।3.30।।
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।3.30।।
mayi sarvāṇi karmāṇi sannyasyādhyātma-chetasā nirāśhīr nirmamo bhūtvā yudhyasva vigata-jvaraḥ
mayi—unto me; sarvāṇi—all; karmāṇi—works; sannyasya—renouncing completely; adhyātma-chetasā—with the thoughts resting on God; nirāśhīḥ—free from hankering for the results of the actions; nirmamaḥ—without ownership; bhūtvā—so being; yudhyasva—fight; vigata-jvaraḥ—without mental fever
अनुवाद
।।3.30।। तू विवेकवती बुद्धिके द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको मेरे अर्पण करके कामना, ममता और संताप-रहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको कर।
टीका
3.30।। व्याख्या--'मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा'-- प्रायः साधकका यह विचार रहता है कि कर्मोंसे बन्धन होता है और कर्म किये बिना कोई रह सकता नहीं; इसलिये कर्म करनेसे तो मैं बँध जाऊँगा! अतः कर्म किस प्रकार करने चाहिये, जिससे कर्म बन्धनकारक न हों, प्रत्युत मुक्तिदायक हो जायँ-- इसके लिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तू अध्यात्मचित्त-(विवेक-विचारयुक्त अन्तःकरण-) से सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको मेरे
अर्पण कर दे अर्थात् इनसे अपना कोई सम्बन्ध मत मान। कारण कि वास्तवमें संसार-मात्रकी सम्पूर्ण क्रियाओंमें केवल मेरी शक्ति ही काम कर रही है। शरीर, इन्द्रियाँ, पदार्थ आदि भी मेरे हैं और शक्ति भी मेरी है। इसलिये 'सब कुछ भगवान्का है और भगवान् अपने हैं'-- गम्भीरतापूर्वक ऐसा विचार करके जब तू कर्वव्य-कर्म करेगा, तब वे कर्म तेरेको बाँधनेवाले नहीं होंगे, प्रत्युत उद्धार करनेवाले हो जायँगे। शरीर, इन्द्रियाँ,
मन, बुद्धि, पदार्थ आदिपर अपना कोई अधिकार नहीं चलता-- यह मनुष्यमात्रका अनुभव है। ये सब प्रकृतिके हैं-- 'प्रकृतिस्थानि' और 'स्वयं 'परमात्माका है-- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता 15। 7)। अतः शरीरादि पदार्थोंमें भूलसे माने हुए अपनेपनको हटाकर इनको भगवान्का ही मानना (जो कि वास्तवमें है) 'अर्पण' कहलाता है। अतः अपने विवेकको महत्त्व देकर पदार्थों और कर्मोंसे मूर्खतावश माने हुए सम्बन्धका त्याग करना ही अर्पण करनेका
तात्पर्य है।'अध्यात्मचेतसा' पदसे भगवान्का यह तात्पर्य है कि किसी भी मार्गका साधक हो, उसका उद्देश्य आध्यात्मिक होना चाहिये, लौकिक नहीं। वास्तवमें उद्देश्य या आवश्यकता सदैव नित्यतत्त्वकी (आध्यात्मिक) होती है और कामना सदैव अनित्यतत्त्व (उत्पत्ति विनाशशील वस्तु) की होती है। साधकमें उद्देश्य होना चाहिये कामना नहीं। उद्देश्यवाला अन्तःकरण विवेक-विचारयुक्त ही रहता है।दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक, किसी भी दृष्टिसे
यह सिद्ध नहीं हो सकता कि शरीरादि भौतिक पदार्थ अपने हैं। वास्तवमें ये पदार्थ अपने और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत केवल सदुपयोग करनेके लिये मिले हुए हैं। अपने न होनेके कारण ही इनपर किसीका आधिपत्य नहीं चलता।संसारमात्र परमात्माका है; परन्तु जीव भूलसे परमात्माकी वस्तुको अपनी मान लेता है और इसीलिये बन्धनमें पड़ जाता है। अतः विवेक-विचारके द्वारा इस भूलको मिटाकर सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मोंको अध्यात्मतत्त्व(परमात्मा)
का स्वीकार कर लेना ही अध्यात्मचित्तके द्वारा उनका अर्पण करना है।इस श्लोकमें 'अध्यात्मचेतसा' पद मुख्यरूपसे आया है। तात्पर्य यह है कि अविवेकसे ही उत्पत्ति-विनाशशील शरीर (संसार) अपना दीखता है। यदि विवेक-विचार-पूर्वक देखा जाय तो शरीर या संसार अपना नहीं दीखेगा, प्रत्युत एक अविनाशी परमात्मतत्त्व ही अपना दीखेगा। संसारको अपना देखना ही पतन है और अपना न देखना ही उत्थान है--