Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3.34।।

indriyasyendriyasyārthe rāga-dveṣhau vyavasthitau tayor na vaśham āgachchhet tau hyasya paripanthinau

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Word Meanings

indriyasyaof the senses
indriyasya arthein the sense objects
rāgaattachment
dveṣhauaversion
vyavasthitausituated
tayoḥof them
nanever
vaśhambe controlled
āgachchhetshould become
tauthose
hicertainly
asyafor him
paripanthinaufoes
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अनुवाद

।।3.34।। इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें विघ्न डालनेवाले) शत्रु हैं।

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टीका

3.34।। व्याख्या--'इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ'--प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें राग-द्वेषको अलग-अलग स्थित बतानेके लिये यहाँ 'इन्द्रियस्य' पद दो बार प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक इन्द्रिय-(श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण-) के प्रत्येक विषय-(शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-) में अनुकूलता-प्रतिकूलताकी मान्यतासे मनुष्यके राग-द्वेष स्थित रहते हैं। इन्द्रियके

विषयमें अनुकूलताका भाव होनेपर मनुष्यका उस विषयमें 'राग' हो जाता है और प्रतिकूलताका भाव होनेपर उस विषयमें 'द्वेष' हो जाता है।वास्तवमें देखा जाय तो राग-द्वेष इन्द्रियोंके विषयोंमें नहीं रहते। यदि विषयोंमें राग-द्वेष स्थित होते तो एक ही विषय सभीको समानरूपसे प्रिय अथवा अप्रिय लगता। परन्तु ऐसा होता नहीं; जैसे--वर्षा किसानको तो प्रिय लगती है, पर कुम्हारको अप्रिय। एक मनुष्यको भी कोई विषय सदा प्रिय या अप्रिय

नहीं लगता; जैसे--ठंडी हवा गरमीमें अच्छी लगती है, पर सरदीमें बुरी। इस प्रकार सब विषय अपने अनुकूलता या प्रतिकूलताके भावसे ही प्रिय अथवा अप्रिय लगते हैं अर्थात् मनुष्य विषयोंमें अपना अनुकूल या प्रतिकूल भाव करके उनको अच्छा या बुरा मानकर राग-द्वेष कर लेता है। इसलिये भगवान्ने राग-द्वेषको प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें स्थित बताया है। वास्तवमें राग-द्वेष माने हुए 'अहम्'-(मैं-पन-) में रहते हैं (टिप्पणी

प0 176)। शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध हीअहम् कहलाता है। अतः जबतक शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध रहता है, तबतक उसमें रागद्वेष रहते हैं और वे ही राग-द्वेष, बुद्धि, मन, इन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रतीत होते हैं। इसी अध्यायके सैंतीसवेंसे तैंतालीसवें श्लोकतक भगवान्ने इन्हीं राग-द्वेषको 'काम' और 'क्रोध' के नामसे कहा है। राग और द्वेषके ही स्थूलरूप काम और क्रोध हैं। चालीसवें श्लोकमें बताया है कि यह 'काम'

इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें रहता है। विषयोंकी तरह इनमें (इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें) 'काम' की प्रतीति होनेके कारण ही भगवान्ने इनको 'काम' का निवास-स्थान बताया है। जैसे विषयोंमें राग-द्वेषकी प्रतीतिमात्र है, ऐसे ही इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें भी रागद्वेषकी प्रतीतिमात्र है। ये इन्द्रियाँ मन और बुद्धि तो केवल कर्म करनेके करण (औजार) हैं। इनमें काम-क्रोध अथवा राग-द्वेष हैं ही कहाँ? इसके सिवाय दूसरे अध्यायके

उनसठवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर उनमें रहनेवाला उसका राग निवृत्त नहीं होता। यह राग परमात्माका साक्षात्कार होनेपर निवृत्त हो जाता है। 'तयोर्न वशमागच्छेत्' इन पदोंसे भगवान् साधकको आश्वासन देते हैं कि राग-द्वेषकी वृत्ति उत्पन्न होनेपर उसे साधन और साध्यसे कभी निराश नहीं होना चाहिये ,अपितु राग-द्वेषकी वृत्तिके वशीभूत

होकर उसे किसी कार्यमें प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होना चाहिये। कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति शास्त्रके अनुसार ही होनी चाहिये (गीता 16।24)। यदि राग-द्वेषको लेकर ही साधककी कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है तो इसका तात्पर्य यह होता है कि साधक राग-द्वेषके वशमें हो गया। रागपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे 'राग' पुष्ट होता है और द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे 'द्वेष' पुष्ट होता है।

इस प्रकार राग-द्वेष पुष्ट होनेके फलस्वरूप पतन ही होता है।जब साधक संसारका कार्य छोड़कर भजनमें लगता है, तब संसारकी अनेक अच्छी और बुरी स्फुरणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं, जिनसे वह घबरा जाता है। यहाँ भगवान् साधकको मानो आश्वासन देते हैं कि उसे इन स्फुरणाओंसे घबराना नहीं चाहिये। इन स्फुरणाओंकी वास्तवमें सत्ता ही नहीं है; क्योंकि ये उत्पन्न होती हैं; और यह सिद्धान्त है कि उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट होनेवाली

होती है। अतः विचारपूर्वक देखा जाय तो स्फुरणाएँ आ नहीं रही हैं, प्रत्युत जा रही हैं। कारण यह है कि संसारका कार्य करते समय अवकाश न मिलनेसे स्फुरणाएँ दबी रहती हैं और संसारका कार्य छोड़ते ही अवकाश मिलनेसे पुराने संस्कार स्फुरणाओंके रूपमें बाहर निकलने लगते हैं। अतः साधकको इन अच्छी या बुरी स्फुरणाओंसे भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत सावधानीपूर्वक इनकी उपेक्षा करते हुए स्वयं तटस्थ रहना चाहिये। इसी प्रकारउसे पदार्थ, व्यक्ति, विषय आदिमें भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये।

भगवद गीता 3.34 - अध्याय 3 श्लोक 34 हिंदी और अंग्रेजी