Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।।

śhrī bhagavān uvācha imaṁ vivasvate yogaṁ proktavān aham avyayam vivasvān manave prāha manur ikṣhvākave ’bravīt

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Word Meanings

śhrī-bhagavān uvāchathe Supreme Lord Shree Krishna said
imamthis
vivasvateto the Sun-god
yogamthe science of Yog
proktavāntaught
ahamI
avyayameternal
vivasvānSun-god
manaveto Manu, the original progenitor of humankind
prāhatold
manuḥManu
ikṣhvākaveto Ikshvaku, first king of the Solar dynasty
abravītinstructed
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अनुवाद

।।4.1।। श्रीभगवान् बोले - मैंने इस अविनाशी योगको सूर्यसे कहा था। फिर सूर्यने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकुसे कहा।

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टीका

।।4.1।। व्याख्या-- 'इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्'--भगवान्ने जिन सूर्य, मनु और इक्ष्वाकु राजाओंका उल्लेख किया है, वे सभी गृहस्थ थे और उन्होंने गृहस्थाश्रममें रहते हुए ही कर्मयोगके द्वारा परमसिद्धि प्राप्त की थी; अतः यहाँके 'इमम् अव्ययम्, योगम्' पदोंका तात्पर्य पूर्वप्रकरणके अनुसार तथा राजपरम्पराके अनुसार 'कर्मयोग' लेना ही उचित प्रतीत होता है।यद्यपि पुराणोंमें और उपनिषदोंमें भी कर्मयोगका वर्णन

आता है, तथापि वह गीतामें वर्णित कर्मयोगके समान साङ्गोपाङ्ग और विस्तृत नहीं है। गीतामें भगवान्ने विविध युक्तियोंसे कर्मयोगका सरल और साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया है। कर्मयोगका इतना विशद वर्णन पुराणों और उपनिषदोंमें देखनेमें नहीं आता। भगवान् नित्य हैं और उनका अंश जीवात्मा भी नित्य है तथा भगवान्के साथ जीवका सम्बन्ध भी नित्य है। अतः भगवत्प्राप्तिके सब मार्ग (योगमार्ग, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग आदि) भी नित्य हैं

(टिप्पणी प0 206)। यहाँ 'अव्ययम्' पदसे भगवान् कर्मयोगकी नित्यताका प्रतिपादन करते हैं।परमात्माके साथ जीवका स्वतःसिद्ध सम्बन्ध (नित्य-योग) है। जैसे पतिव्रता स्त्रीको पतिकी होनेके लिये करना कुछ नहीं पड़ता; क्योंकि वह पतिकी तो है ही, ऐसे ही साधकको परमात्माका होनेके लिये करना कुछ नहीं है, वह तो परमात्माका है ही; परन्तु अनित्य क्रिया, पदार्थ, घटना आदिके साथ जब वह अपनी सम्बन्ध मान लेता है, तब उसे 'नित्ययोग'

अर्थात् परमात्माके साथ अपने नित्यसम्बन्धका अनुभव नहीं होता। अतः उस अनित्यके साथ माने हुए सम्बन्धको मिटानेके लिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि मिली हुई समस्त वस्तुओंको संसारकी ही मानकर संसारकी सेवामें लगा देता है। वह मानता है कि जैसे धूलका छोटा-से-छोटा कण भी विशाल पृथ्वीका ही एक अंश है ,ऐसे ही यह शरीर भी विशाल ब्रह्माण्डका ही एक अंश है। ऐसा माननेसे 'कर्म' तो संसारके लिये होंगे पर 'योग'

(नित्ययोग) अपने लिये होगा अर्थात् नित्ययोगका अनुभव हो जायगा। भगवान् 'विवस्वते प्रोक्तवान्' पदोंसे साधकोंको मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि जैसे सूर्य सदा चलते ही रहते हैं अर्थात् कर्म करते ही रहते हैं और सबको प्रकाशित करनेपर भी स्वयं निर्लिप्त रहते हैं, ऐसे ही साधकोंको भी प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन स्वयं करते रहना चाहिये (गीता 3। 19) और दूसरोंको भी कर्मयोगकी शिक्षा देकर लोकसंग्रह

करते रहना चाहिये; पर स्वयं उनसे निर्लिप्त (निष्काम, निर्मम और अनासक्त) रहना चाहिये।सृष्टिमें सूर्य सबके आदि हैं। सृष्टिकी रचनाके समय भी सूर्य जैसे पूर्वकल्पमें थे, वैसे ही प्रकट हुए-- 'सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।' उन (सबके आदि) सूर्यको भगवान्ने अविनाशी कर्मयोगका उपदेश दिया। इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् सबके आदिगुरु हैं और साथ ही कर्मयोग भी अनादि है। भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि मैं तुम्हें

जो कर्मयोगकी बात बता रहा हूँ, वह कोई आजकी नयी बात नहीं है। जो योग सृष्टिके आदिसे अर्थात् सदासे है, उसी योगकी बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ।  प्रश्न-- भगवान्ने सृष्टिके आदिकालमें सूर्यको कर्म-योगका उपदेश क्यों दिया  उत्तर-- (1) सृष्टिके आरम्भमें भगवान्ने सूर्यको ही कर्मयोगका वास्तविक अधिकारी जानकर उन्हें सर्वप्रथम इस योगका उपदेश दिया। (2) सृष्टिमें जो सर्वप्रथम उत्पन्न होता है, उसे ही उपदेश दिया जाता

है; जैसे-- ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिमें प्रजाओँको उपदेश दिया (गीता 3। 10)। उपदेश देनेका तात्पर्य है-- कर्तव्यका ज्ञान कराना। सृष्टिमें सर्वप्रथम सूर्यकी उत्पत्ति हुई, फिर सूर्यसे समस्त लोक उत्पन्न हुए। सबको उत्पन्न करनेवाले (टिप्पणी प0 207.1) सूर्यको सर्वप्रथम कर्मयोगका उपदेश देनेका अभिप्राय उनसे उत्पन्न सम्पूर्ण सृष्टिको परम्परासे कर्मयोग सुलभ करा देना था। (3) सूर्य सम्पूर्ण जगत्के नेत्र हैं। उनसे

ही सबको ज्ञान प्राप्त होता है एवं उनके उदित होनेपर प्रायः समस्त प्राणी जाग्रत् हो जाते हैं और अपने-अपने कर्मोंमें लग जाते हैं। सूर्यसे ही मनुष्योंमें कर्तव्य-परायणता आती है। सूर्यको सम्पूर्ण जगत्की आत्मा भी कहा गया है-- 'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च' (टिप्पणी प0 207.2)। अतः सूर्यको जो उपदेश प्राप्त होगा, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको भी स्वतः प्राप्त हो जायगा। इसलिये भगवान्ने सर्वप्रथम सूर्यको ही उपदेश दिया।वास्तवमें

नारायणके रूपमें उपदेश देना और सूर्यके रूपमें उपदेश ग्रहण करना जगन्नाट्यसूत्रधार भगवान्की एक लीला ही समझनी चाहिये, जो संसारके हितके लिये बहुत आवश्यक थी। जिस प्रकार अर्जुन महान् ज्ञानी नर-ऋषिके अवतार थे; परन्तु लोकसंग्रहके लिये उन्हें भी उपदेश लेनेकी आवश्यकता हुई, ठीक उसी प्रकार भगवान्ने स्वयं ज्ञानस्वरूप सूर्यको उपदेश दिया, जिसके फलस्वरूप संसारका महान् उपकार हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा।

भगवद गीता 4.1 - अध्याय 4 श्लोक 1 हिंदी और अंग्रेजी