।।4.6।।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4.6।।
ajo ’pi sannavyayātmā bhūtānām īśhvaro ’pi san prakṛitiṁ svām adhiṣhṭhāya sambhavāmyātma-māyayā
ajaḥ—unborn; api—although; san—being so; avyaya ātmā—Imperishable nature; bhūtānām—of (all) beings; īśhvaraḥ—the Lord; api—although; san—being; prakṛitim—nature; svām—of myself; adhiṣhṭhāya—situated; sambhavāmi—I manifest; ātma-māyayā—by my Yogmaya power
अनुवाद
।।4.6।। मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।
टीका
4.6।। व्याख्या--[यह छठा श्लोक है और इसमें छः बातोंका ही वर्णन हुआ है। अज, अव्यय और ईश्वर--ये तीन बातें भगवान्की हैं, (टिप्पणी प0 217) प्रकृति और योगमाया--ये दो बातें भगवान्की शक्तिकी हैं और एक बात भगवान्के प्रकट होनेकी है।]