।।5.24।।

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।5.24।।

yo 'ntaḥ-sukho 'ntar-ārāmas tathāntar-jyotir eva yaḥ sa yogī brahma-nirvāṇaṁ brahma-bhūto 'dhigachchhati

yaḥ—who; antaḥ-sukhaḥ—happy within the self; antaḥ-ārāmaḥ—enjoying within the self; tathā; antaḥ-jyotiḥ—illumined by the inner light; eva—certainly; yaḥ—who; saḥ; yogī—yogi; brahma-nirvāṇam—liberation from material existence; brahmabhūtaḥ— united with the Lord; adhigachchhati—attains

अनुवाद

।।5.24।। जो मनुष्य केवल परमात्मामें सुखवाला है और केवल परमात्मामें रमण करनेवाला है तथा जो केवल परमात्मामें ज्ञानवाला है, वह ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करनेवाला सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होता है।

टीका

5.24।। व्याख्या--'योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः' जिसको प्रकृतिजन्य बाह्य पदार्थोंमें सुख प्रतीत नहीं होता, प्रत्युत एकमात्र परमात्मामें ही सुख मिलता है, ऐसे साधकको यहाँ 'अन्तःसुखः' कहा गया है। परमात्मतत्त्वके सिवाय कहीं भी उसकी सुख-बुद्धि नहीं रहती। परमात्मतत्त्वमें सुखका अनुभव उसे हर समय होता है; क्योंकि उसके सुखका आधार बाह्य पदार्थोंका संयोग नहीं होता।स्वयं अपनी सत्तामें निरन्तर स्थित

रहनेके लिये बाह्यकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। स्वयंको स्वयंसे दुःख नहीं होता, स्वयंको स्वयंसे अरुचि नहीं होती--यह अन्तःसुख है।जो सदाके लिये न मिले और सभीको न मिले, वह 'बाह्य' है। परन्तु जो सदाके लिये मिले और सभीको मिले, वह 'आभ्यन्तर' है।जो भोगोंमें रमण नहीं करता, प्रत्युत केवल परमात्म-तत्त्वमें ही रमण करता है, और व्यवहारकालमें भी जिसका एकमात्र परमात्मतत्त्वमें ही व्यवहार हो रहा है, ऐसे साधकको

यहाँ 'अन्तरारामः' कहा गया है।इन्द्रियजन्य ज्ञान, बुद्धिजन्य ज्ञान आदि जितने भी सांसारिक ज्ञान कहे जाते हैं, उन सबका प्रकाशक और आधार परमात्मतत्त्वका ज्ञान है। जिस साधकका यह ज्ञान हर समय जाग्रत् रहता है, उसे यहाँ 'अन्तर्ज्योतिः' कहा गया है।सांसारिक ज्ञानका तो आरम्भ और अन्त होता है, पर उस परमात्मतत्त्वके ज्ञानका न आरम्भ होता है, न अन्त। वह नित्य-निरन्तर रहता है। इसलिये सबमें एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है'--ऐसा ज्ञान सांख्ययोगीमें नित्य-निरन्तर और स्वतः-स्वाभाविक रहता है।