।।5.29।।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।5.29।।

bhoktāraṁ yajña-tapasāṁ sarva-loka-maheśhvaram suhṛidaṁ sarva-bhūtānāṁ jñātvā māṁ śhāntim ṛichchhati

bhoktāram—the enjoyer; yajña—sacrifices; tapasām—austerities; sarva-loka—of all worlds; mahā-īśhvaram—the Supreme Lord; su-hṛidam—the selfless Friend; sarva—of all; bhūtānām—the living beings; jñātvā—having realized; mām—me (Lord Krishna); śhāntim—peace; ṛichchhati—attains

अनुवाद

।।5.29।। भक्त मुझे सब यज्ञों और तपोंका भोक्ता, सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् (स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी) जानकर शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

टीका

।।5.29।। व्याख्या--'भोक्तारं यज्ञतपसाम्'--जब मनुष्य कोई शुभ कर्म करता है, तब वह जिनसे शुभ कर्म करता है, उन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिको अपना मानता है और जिसके लिये शुभ कर्म करता है, उसे उस कर्मका भोक्ता मानता है; जैसे--किसी देवताकी पूजा की तो उस देवताको पूजारूप कर्मका भोक्ता मानता है; किसीकी सेवा की तो उसे सेवारूप कर्मका भोक्ता मानता है; किसी भूखे व्यक्तिको अन्न दिया तो उसे अन्नका भोक्ता

मानता है, आदि। इस मान्यताको दूर करनेके लिये भगवान् उपर्युक्त पदोंमें कहते हैं कि वास्तवमें सम्पूर्ण शुभ कर्मोंका भोक्ता मैं ही हूँ। कारण कि प्राणिमात्रके हृदयमें भगवान् ही विद्यमान हैं (टिप्पणी प0 321)। इसलिये किसीका पूजन करना, किसीको अन्न-जल देना, किसीको मार्ग बताना आदि जितने भी शुभ कर्म हैं, उन सबका भोक्ता भगवान्को ही मानना चाहिये। लक्ष्य भगवान्पर ही रहना चाहिये प्राणीपर नहीं।नवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता बताया है--'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता।'