।।6.10।।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।6.10।।
yogī yuñjīta satatam ātmānaṁ rahasi sthitaḥ ekākī yata-chittātmā nirāśhīr aparigrahaḥ
yogī—a yogi; yuñjīta—should remain engaged in meditation; satatam—constantly; ātmānam—self; rahasi—in seclusion; sthitaḥ—remaining; ekākī—alone; yata-chitta-ātmā—with a controlled mind and body; nirāśhīḥ—free from desires; aparigrahaḥ—free from desires for possessions for enjoyment
अनुवाद
।।6.10।। भोगबुद्धिसे संग्रह न करनेवाला, इच्छारहित और अन्तःकरण तथा शरीरको वशमें रखनेवाला योगी अकेला एकान्तमें स्थित होकर मनको निरन्तर परमात्मामें लगाये।
टीका
।।6.10।। व्याख्या--[पाँचवें अध्यायके सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकोंमें जिस ध्यानयोगका संक्षेपसे वर्णन किया था, अब यहाँ उसीका विस्तारसे वर्णन कर रहे हैं। 'युज् समाधौ' धातुसे जो 'योग' शब्द बनता है, जिसका अर्थ चित्तवृत्तियोंका निरोध करना है (टिप्पणी प0 341.1), उस योगका वर्णन यहाँ दसवें श्लोकसे आरम्भ करते हैं।]