।।6.16।।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।
nātyaśhnatastu yogo ’sti na chaikāntam anaśhnataḥ na chāti-svapna-śhīlasya jāgrato naiva chārjuna
na—not; ati—too much; aśhnataḥ—of one who eats; tu—however; yogaḥ—Yog; asti—there is; na—not; cha—and; ekāntam—at all; anaśhnataḥ—abstaining from eating; na—not; cha—and; ati—too much; svapna-śhīlasya—of one who sleeps; jāgrataḥ—of one who does not sleep enough; na—not; eva—certainly; cha—and; arjuna—Arjun
अनुवाद
।।6.16।। हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवालेका और न बिलकुल न खानेवालेका तथा न अधिक सोनेवालेका और न बिलकुल न सोनेवालेका ही सिद्ध होता है।
टीका
।।6.16।। व्याख्या--'नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति'--अधिक खानेवालेका योग सिद्ध नहीं होता (टिप्पणी प0 347)। कारण कि अन्न अधिक खानेसे अर्थात् भूखके बिना खानेसे अथवा भूखसे अधिक खानेसे प्यास ज्यादा लगती है, जिससे पानी ज्यादा पीना पड़ता है। ज्यादा अन्न खाने और पानी पीनेसे पेट भारी हो जाता है। पेट भारी होनेसे शरीर भी बोझिल मालूम देता है। शरीरमें आलस्य छा जाता है। बार-बार पेट याद आताहै। कुछ भी काम करनेका अथवा साधन,
भजन, जप, ध्यान आदि करनेका मन नहीं करता। न तो सुखपूर्वक बैठा जाता है और न सुखपूर्वक लेटा ही जाता है तथा न चलने-फिरनेका ही मन करता है। अजीर्ण आदि होनेसे शरीरमें रोग पैदा हो जाते हैं। इसलिये अधिक खानेवाले पुरुषका योग कैसे सिद्ध हो सकता है? नहीं हो सकता।