।।6.17।।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6.17।।

yuktāhāra-vihārasya yukta-cheṣhṭasya karmasu yukta-svapnāvabodhasya yogo bhavati duḥkha-hā

yukta—moderate; āhāra—eating; vihārasya—recreation; yukta cheṣhṭasya karmasu—balanced in work; yukta—regulated; svapna-avabodhasya—sleep and wakefulness; yogaḥ—Yog; bhavati—becomes; duḥkha-hā—the slayer of sorrows

अनुवाद

।।6.17।। दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका तथा यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।

टीका

।।6.17।। व्याख्या-- युक्ताहारविहारस्य--भोजन सत्य और न्यायपूर्वक कमाये हुए धनका हो, सात्त्विक हो, अपवित्र न हो। भोजन स्वादबुद्धि और पुष्टिबुद्धिसे न किया जाय, प्रत्युत साधनबुद्धिसे किया जाय। भोजन धर्मशास्त्र और आयुर्वेदकी दृष्टिसे किया जाय तथा उतना ही किया जाय, जितना सुगमतासे पच सके। भोजन शरीरके अनुकूल हो तथा वह हलका और थोड़ी मात्रामें (खुराकसे थोड़ा कम) हो--ऐसा भोजन करनेवाला ही युक्त (यथोचित) आहार

करनेवाला है।विहार भी यथायोग्य हो अर्थात् ज्यादा घूमनाफिरना न हो प्रत्युत स्वास्थ्यके लिये जैसा हितकर हो, वैसा ही घूमना-फिरना हो। व्यायाम, योगासन आदि भी न तो अधिक मात्रामें किये जायँ और न उनका अभाव ही हो। ये सभी यथायोग्य हों। ऐसा करनेवालोंको यहाँ युक्त-विहार करनेवाला बताया गया है।