Bhagavad Gita: Chapter <%= chapter %>, Verse <%= verse %>

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः। मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।6.24।। शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।6.25।।

saṅkalpa-prabhavān kāmāns tyaktvā sarvān aśheṣhataḥ manasaivendriya-grāmaṁ viniyamya samantataḥ śhanaiḥ śhanair uparamed buddhyā dhṛiti-gṛihītayā ātma-sansthaṁ manaḥ kṛitvā na kiñchid api chintayet

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Word Meanings

saṅkalpaa resolve
prabhavānborn of
kāmāndesires
tyaktvāhaving abandoned
sarvānall
aśheṣhataḥcompletely
manasāthrough the mind
evacertainly
indriya-grāmamthe group of senses
viniyamyarestraining
samantataḥfrom all sides
śhanaiḥgradually
śhanaiḥgradually
uparametattain peace
buddhyāby intellect
dhṛiti-gṛihītayāachieved through determination of resolve that is in accordance with scriptures
ātma-sansthamfixed in God
manaḥmind
kṛitvāhaving made
nanot
kiñchitanything
apieven
chintayetshould think of
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अनुवाद

।।6.24।। संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग करके और मनसे ही इन्द्रिय-समूहको सभी ओरसे हटाकर। ।।6.25।। धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा संसारसे धीरे-धीरे उपराम हो जाय और परमात्मस्वरूपमें मन-(बुद्धि-) को सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।

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टीका

।।6.24।। व्याख्या--[जो स्थिति कर्मफलका त्याग करनेवाले कर्मयोगीकी होती है (6। 1 9), वही स्थिति सगुणसाकार भगवान्का ध्यान करनेवालेकी (6। 14 15) तथा अपने स्वरूपका ध्यान करनेवाले ध्यानयोगीकी भी होती है (6। 18 23)। अब निर्गुण-निराकारका ध्यान करनेवालेकी भी वही स्थिति होती है--यह बतानेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण कहते हैं।] ।।6.25।। व्याख्या--'बुद्ध्या धृतिगृहीतया'--साधन करते-करते प्रायः साधकोंको उकताहट होती

है, निराशा होती है कि ध्यान लगाते, विचार करते इतने दिन हो गये पर तत्त्वप्राप्ति नहीं हुई, तो अब क्या होगी कैसे होगी? इस बातको लेकर भगवान् ध्यानयोगके साधकको सावधान करते हैं कि उसको ध्यानयोगका अभ्यास करते हुए सिद्धि प्राप्त न हो, तो भी उकताना नहीं चाहिये, प्रत्युत धैर्य रखना चाहिये। जैसे सिद्धि प्राप्त होनेपर, सफलता होनेपर धैर्य रहता है, विफलता होनेपर भी वैसा ही धैर्य रहना चाहिये कि वर्ष-के-वर्ष बीत

जायँ, शरीर चला जाय, तो भी परवाह नहीं, पर तत्त्वको तो प्राप्त करना ही है (टिप्पणी प0 357)। कारण कि इससे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा काम है नहीं। इसलिये इसको समाप्त करके आगे क्या काम करना है? यदि इससे भी बढ़कर कोई काम है तो इसको छोड़ो और उस कामको अभी करो!--इस प्रकार बुद्धिको वशमें कर ले अर्थात् बुद्धिमें मान, बड़ाई, आराम आदिको लेकर जो संसारका महत्त्व पड़ा है, उस महत्त्वको हटा दे। तात्पर्य है कि पूर्वश्लोकमें जिन विषयोंका त्याग करनेके लिये कहा गया है, धैर्यपूर्वक बुद्धिसे उन विषयोंसे उपराम हो जाय।

भगवद गीता 6.24-25 - अध्याय 6 श्लोक 24-25 हिंदी और अंग्रेजी