।।9.15।।

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।9.15।।

jñāna-yajñena chāpyanye yajanto mām upāsate ekatvena pṛithaktvena bahudhā viśhvato-mukham

jñāna-yajñena—yajña of cultivating knowledge; cha—and; api—also; anye—others; yajantaḥ—worship; mām—me; upāsate—worship; ekatvena—undifferentiated oneness; pṛithaktvena—separately; bahudhā—various; viśhwataḥ-mukham—the cosmic form

अनुवाद

।।9.15।। दूसरे साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेद-भावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे कई साधक अपनेको पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट्ररुपकी अर्थात् संसारको मेरा विराट्ररुप मानकर (सेव्य-सेवकभावसे) मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं।

टीका

।।9.15।। व्याख्या--[जैसे, भूखे आदमियोंकी भूख एक होती है और भोजन करनेपर सबकी तृप्ति भी एक होती है परन्तु उनकी भोजनके पदार्थोंमें रुचि भिन्न-भिन्न होती है। ऐसे ही परिवर्तनशील अनित्य संसारकी तरफ लगे हुए लोग कुछ भी करते हैं, पर उनकी तृप्ति नहीं होती, वे अभावग्रस्त ही रहते हैं। जब वे संसारसे विमुख होकर परमात्माकी तरफ ही चलते हैं, तब परमात्माकी प्राप्ति होनेपर उन सबकी तृप्ति हो जाती है अर्थात् वे कृतकृत्य,

ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाते हैं। परन्तु उनकी रुचि, योग्यता, श्रद्धा, विश्वास आदि भिन्नभिन्न होते हैं। इसलिये उनकी उपासनाएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।]