।।9.18।।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।9.18।।
gatir bhartā prabhuḥ sākṣhī nivāsaḥ śharaṇaṁ suhṛit prabhavaḥ pralayaḥ sthānaṁ nidhānaṁ bījam avyayam
gatiḥ—the supreme goal; bhartā—sustainer; prabhuḥ—master; sākṣhī—witness; nivāsaḥ—abode; śharaṇam—shelter; su-hṛit—friend; prabhavaḥ—the origin; pralayaḥ—dissolution; sthānam—store house; nidhānam—resting place; bījam—seed; avyayam—imperishable
अनुवाद
।।9.16 -- 9.18।। क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।
टीका
।।9.18।। व्याख्या--[अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वासके अनुसार किसीको भी साक्षात् परमात्माका स्वरूप मानकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वास्तवमें यह सम्बन्ध सत्के साथ ही है। केवल अपने मन-बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञानके द्वारा मनुष्य सब देश, काल, वस्तु व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्वको ही जानता है। परमात्माके सिवाय दूसरी किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया,आदिकी किञ्चिन्मात्र
भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है -- इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान् विराट्रूपसे अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं अतः सब कुछ भगवान्हीभगवान् हैं -- इसमें अपनेको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिये। कारण कि यह सब भगवान् कैसे हो सकते हैं यह संदेह साधकको वास्तविक तत्त्वसे, मुक्तिसे वञ्चित कर देता है और महान् आफतमें फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़तासे मान लें कि कार्यकारणरूपे स्थूलसूक्ष्मरूप
जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान् ही हैं। इसी कार्यकारणरूपसे भगवान्की सर्वव्यापकताका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है।]