।।9.2।।

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।।

rāja-vidyā rāja-guhyaṁ pavitram idam uttamam pratyakṣhāvagamaṁ dharmyaṁ su-sukhaṁ kartum avyayam

rāja-vidyā—the king of sciences; rāja-guhyam—the most profound secret; pavitram—pure; idam—this; uttamam—highest; pratyakṣha—directly perceptible; avagamam—directly realizable; dharmyam—virtuous; su-sukham—easy; kartum—to practice; avyayam—everlasting

अनुवाद

।।9.2।। यह सम्पूर्ण विद्याओंका और सम्पूर्ण गोपनीयोंका राजा है। यह अति पवित्र तथा अतिश्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है और करनेमें बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।

टीका

।।9.2।। व्याख्या--'राजविद्या'--यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओंका राजा है; क्योंकि इसको ठीक तरहसे जान लेनेके बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता।भगवान्ने सातवें अध्यायके आरम्भमें कहा है कि 'मेरे समग्ररूपको जाननेके बाद जानना कुछ बाकी नहीं रहता।' पन्द्रहवें अध्यायके अन्तमें कहा है कि 'जो असम्मूढ़ पुरुष मेरेको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम जानता है, वह सर्ववित् हो जाता है अर्थात् उसको जानना कुछ बाकी

नहीं रहता', इससे ऐसा मालूम होता है कि भगवान्के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त आदि जितने स्वरूप हैं, उन सब स्वरूपोंमें भगवान्के सगुण-साकार स्वरूपकी बहुत विशेष महिमा है।