।।9.4।।
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।9.4।।
mayā tatam idaṁ sarvaṁ jagad avyakta-mūrtinā mat-sthāni sarva-bhūtāni na chāhaṁ teṣhvavasthitaḥ
mayā—by me; tatam—pervaded; idam—this; sarvam—entire; jagat—cosmic manifestation; avyakta-mūrtinā—the unmanifested form; mat-sthāni—in me; sarva-bhūtāni—all living beings; na—not; cha—and; aham—I; teṣhu—in them; avasthitaḥ—dwell
अनुवाद
।।9.4 -- 9.5।। यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मुझ में स्थित नहीं हैं -- मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग-(सामर्थ्य-) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और उनका धारण, भरण-पोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियोंमें स्थित नहीं है।
टीका
।।9.4।। व्याख्या--'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना'--मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे जिसका ज्ञान होता है, वह भगवान्का व्यक्तरूप है और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियोंका विषय नहीं है अर्थात् मन आदि जिसको नहीं जान सकते, वह भगवान्का अव्यक्तरूप है। यहाँ भगवान्ने 'मया' पदसे व्यक्त(साकार-) स्वरूप और 'अव्यक्तमूर्तिना' पदसे अव्यक्त-(निराकार-) स्वरूप बताया है। इसका तात्पर्य है कि भगवान् व्यक्तरूपसे भी हैं और अव्यक्तरूपसे
भी हैं। इस प्रकार भगवान्की यहाँ व्यक्त-अव्यक्त (साकार-निराकार) कहनेकी गूढ़ाभिसन्धि समग्ररूपसे है अर्थात् सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदिका भेद तो सम्प्रदायोंको लेकर है, वास्तवमें परमात्मा एक हैं। ये सगुण-निर्गुण आदि एक ही परमात्माके अलग-अलग विशेषण हैं, अलग-अलग नाम हैं। गीतामें जहाँ सत्-असत् शरीरशरीरीका वर्णन किया गया है, वहाँ जीवके वास्तविक स्वरूपके लिये आया है--'येन सर्वमिदं ततम्' (2। 17) क्योंकि
यह परमात्माका साक्षात् अंश होनेसे परमात्माके समान ही सर्वत्र व्यापक है अर्थात् परमात्माके साथ इसका अभेद है। जहाँ सगुणनिराकारकी उपासनाका वर्णन आया है, वहाँ बताया है -- येन सर्वमिदं ततम् (8। 22), जहाँ कर्मोंके द्वारा भगवान्का पूजन बताया है, वहाँ भी कहा है--येन सर्वमिदं ततम् (18। 46)। इन सबके साथ एकता करनेके लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं -- मया ततमिदं सर्वम्।'मतस्थानि सर्वभूतानि'-- सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें
स्थित हैं अर्थात् पराअपरा प्रकृतिरूप सारा जगत् मेरेमें ही स्थित है। वह मेरेको छोड़कर रह ही नहीं सकता। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं, मेरेमें ही स्थित रहते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप जो कुछ परिवर्तन होता है, वह सब मेरेमें ही होता है। अतः वे सब प्राणी मेरेमें स्थित हैं।'न चाहं तेष्ववस्थितः'-- पहले भगवान्ने दो बातें कहीं -- पहली 'मया
ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' और दूसरी 'मत्स्थानि सर्वभूतानि।' अब भगवान् इन दोनों बातोंके विरुद्ध दो बातें कहते हैं।पहली बात(मैं सम्पूर्ण जगत्में स्थित हूँ) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। कारण कि यदि मैं उनमें स्थित होता तो उनमें जो परिवर्तन होता है, वह परिवर्तन मेरेमें भी होता उनका नाश होनेसे मेरा भी नाश होता और उनका अभाव होनेसे मेरा भी अभाव होता। तात्पर्य है कि उनका तो परिवर्तन,
नाश और अभाव होता है परन्तु मेरेमें कभी किञ्चिन्मात्र भी विकृति नहीं आती। मैं उनमें सब तरहसे व्याप्त रहता हुआ भी उनसे निर्लिप्त हूँ, उनसे सर्वथा सम्बन्धरहित हूँ। मैं तो निर्विकाररूपसे अपनेआपमें ही स्थित हूँ।वास्तवमें मैं उनमें स्थित हूँ -- ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि मेरी सत्तासे ही उनकी सत्ता है, मेरे होनेपनसे ही उनका होनापन है। यदि मैं उनमें न होता, तो जगत्की सत्ता ही नहीं होती। जगत्का होनापन तो
मेरी सत्तासे ही दीखता है। इसलिये कहा कि मैं उनमें स्थित हूँ। 'न च मत्स्थानि भूतानि' (टिप्पणी प0 489) -- अब भगवान् दूसरी बात(सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि वे प्राणी मेरेमें स्थित नहीं हैं। कारण कि अगर वे प्राणी मेरेमें स्थित होते तो मैं जैसा निरन्तर निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहता हूँ, वैसा संसार भी निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहता। मेरा कभी उत्पत्तिविनाश नहीं होता,
तो संसारका भी उत्पत्तिविनाश नहीं होता। एक देशमें हूँ और एक देशमें नहीं हूँ, एक कालमें हूँ, और एक कालमें नहीं हूँ, एक व्यक्तिमें हूँ और एक व्यक्तिमें नहीं हूँ -- ऐसी परिच्छिन्नता मेरेमें नहीं है, तो संसारमें भी ऐसी परिच्छिन्नता नहीं होती। तात्पर्य है कि निर्विकारता, नित्यता, व्यापकता, अविनाशीपन आदि जैसे मेरेमें हैं, वैसे ही उन प्राणियोंमें भी होते। परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरी स्थिति निरन्तर रहती है
और उनकी स्थिति निरन्तर नहीं रहती, तो इससे सिद्ध हुआ कि वे मेरेमें स्थित नहीं हैं।अब उपर्युक्त विधिपरक और निषेधपरक चारों बातोंको दूसरी रीतिसे इस प्रकार समझें। संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है तथा परमात्मा संसारमें नहीं हैं और संसार परमात्मामें नहीं है। जैसे, अगर तरंगकी सत्ता मानी जाय तो तरंगमें जल है और जलमें तरंग है। कारण कि जलको छोड़कर तरंग रह ही नहीं सकती। तरंग जलसे ही पैदा होती है,
जलमें ही रहती है और जलमें ही लीन हो जाती है अतः तरंगका आधार, आश्रय केवल जल ही है। जलके बिना उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये तरंगमें जल है और जलमें तरंग है। ऐसे ही संसारकी सत्ता मानी जाय तो संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है। कारण कि परमात्माको छोड़कर संसार रह ही नहीं सकता। संसार परमात्मासे ही पैदा होता है, परमात्मामें ही रहता है और परमात्मामें ही लीन हो जाता है। परमात्माके सिवाय
संसारकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है।अगर तरंग उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होनेसे तथा जलके सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे तरंगकी सत्ता न मानी जाय, तो न तरंगमें जल है और न जलमें तरंग है अर्थात् केवल जलहीजल है और जल ही तरंगरूपसे दीख रहा है। ऐसे ही संसार उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होनेसे तथा परमात्माके सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे संसारकी सत्ता
न मानी जाय, तो न संसारमें परमात्मा हैं और न परमात्मामें संसार है अर्थात् केवल परमात्माहीपरमात्मा हैं और परमात्मा ही संसाररूपसे दीख रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे तत्त्वसे एक जल ही है, तरंग नहीं है, ऐसे ही तत्त्वसे एक परमात्मा ही हैं, संसार नहीं है--'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19)।अब कार्यकारणकी दृष्टिसे देखें तो जैसे मिट्टीसे बने हुए जितने बर्तन हैं, उन सबमें मिट्टी ही है क्योंकि वे मिट्टीसे ही बने हैं,
मिट्टीमें ही रहते हैं और मिट्टीमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका आधार मिट्टी ही है। इसलिये बर्तनोंमें मिट्टी है और मिट्टीमें बर्तन हैं। परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो बर्तनोंमें मिट्टी और मिट्टीमें बर्तन नहीं हैं। अगर बर्तनोंमें मिट्टी होती, तो बर्तनोंके मिटनेपर मिट्टी भी मिट जाती। परन्तु मिट्टी मिटती ही नहीं। अतः मिट्टी मिट्टीमें ही रही अर्थात् अपनेआपमें ही स्थित रही। ऐसे ही अगर मिट्टीमें बर्तन होते,
तो मिट्टीके रहनेपर बर्तन हरदम रहते। परन्तु बर्तन हरदम नहीं रहते। इसलिये मिट्टीमें बर्तन नहीं हैं। ऐसे ही संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार रहते हुए भी संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार नहीं है। कारण कि अगर संसारमें परमात्मा होते तो संसारके मिटनेपर परमात्मा भी मिट जाते। परन्तु परमात्मा मिटते ही नहीं। इसलिये संसारमें परमात्मा नहीं हैं। परमात्मा तो अपनेआपमें स्थित हैं। ऐसे ही परमात्मामें संसार
नहीं है। अगर परमात्मामें संसार होता तो परमात्माके रहनेपर संसार भी रहता परन्तु संसार नहीं रहता। इसलिये परमात्मामें संसार नहीं है।जैसे, किसीने हरिद्वारको याद किया तो उसके मनमें हरिकी पैड़ी दीखने लग गयी। बीचमें घण्टाघर बना हुआ है। उसके दोनों ओर गङ्गाजी बह रही हैं। सीढ़ियोंपर लोग स्नान कर रहे हैं। जलमें मछलियाँ उछलकूद मचा रही हैं। यह सबकासब हरिद्वार मनमें है। इसलिये हरिद्वारमें बना हुआ सब कुछ,(पत्थर,
जल, मनुष्य, मछलियाँ आदि) मन ही है। परन्तु जहाँ चिन्तन छोड़ा, वहाँ फिर हरिद्वार नहीं रहा, केवल मनहीमन रहा। ऐसे ही परमात्माने 'बहु स्यां प्रजायेय'संकल्प किया, तो संसार प्रकट हो गया। उस संसारके कणकणमें परमात्मा ही रहे और संसार परमात्मामें ही रहा क्योंकि परमात्मा ही संसाररूपमें प्रकट हुए हैं। परन्तु जहाँ परमात्माने संकल्प छोड़ा, वहाँ फिर संसार नहीं रहा, केवल परमात्माहीपरमात्मा रहे।तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा
हैं और संसार है-- इस दृष्टिसे देखा जाय तो संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार है। परन्तु तत्त्वकी दृष्टिसे देखा जाय तो न संसारमें परमात्मा हैं और न परमात्मामें संसार है क्योंकि वहाँ संसारकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। वहाँ तो केवल परमात्माहीपरमात्मा हैं --'वासुदेवः सर्वम्।' यही जीवन्मुक्तोंकी, भक्तोंकी दृष्टि है। 'पश्य मे योगमैश्वरम्' (टिप्पणी प0 490) -- मैं सम्पूर्ण जगत्में और सम्पूर्ण जगत्
मेरेमें होता हुआ भी सम्पूर्ण जगत् मेरेमें नहीं है और मैं सम्पूर्ण जगत्में नहीं हूँ अर्थात् मैं संसारसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ, अपनेआपमें ही स्थित हूँ -- मेरे इस ईश्वरसम्बन्धी योगको अर्थात् प्रभाव(सामर्थ्य) को देख। तात्पर्य है कि मैं एक ही अनेकरूपसे दीखता हूँ और अनेकरूपसे दीखता हुआ भी मैं एक ही हूँ अतः केवल मैंहीमैं हूँ।'पश्य' क्रियाके दो अर्थ होते हैं -- जानना और देखना। जानना बुद्धिसे और देखना नेत्रोंसे
होता है। भगवान्के योग(प्रभाव) को जाननेकी बात यहाँ आयी है और उसे देखनेकी बात ग्यारहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें आयी है।'भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः' -- मेरा जो स्वरूप है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको पैदा करनेवाला, सबको धारण करनेवाला तथा उनका भरणपोषण करनेवाला है। परन्तु मैं उन प्राणियोंमें स्थित नहीं हूँ अर्थात् मैं उनके आश्रित नहीं हूँ, उनमें लिप्त नहीं हूँ। इसी बातको भगवान्ने पंद्रहवें अध्यायके
सत्रहवें श्लोकमें कहा है कि क्षर (जगत्) और अक्षर (जीवात्मा) -- दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जिसको,परमात्मा नामसे कहा गया है और जो सम्पूर्ण लोकोंमें व्याप्त होकर सबकाभरणपषण करता हुआ सबका शासन करता है।तात्पर्य यह हुआ कि जैसे मैं सबको उत्पन्न करता हुआ और सबका भरणपोषण करता हुआ भी अहंताममतासे रहित हूँ और सबमें रहता हुआ भी उनके आश्रित नहीं हूँ, उनसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ। ऐसे ही मनुष्यको चाहिये कि
वह कुटुम्बपरिवारका भरणपोषण करता हुआ और सबका प्रबन्ध, संरक्षण करता हुआ उनमें अहंताममता न करे और जिसकिसी देश, काल, परिस्थितिमें रहता हुआ भी अपनेको उनके आश्रित न माने अर्थात् सर्वथा निर्लिप्त रहे।भक्तके सामने जो कुछ परिस्थिति आये, जो कुछ घटना घटे, मनमें जो कुछ संकल्पविकल्प आये, उन सबमें उसको भगवान्की ही लीला देखनी चाहिये। भगवान् ही कभी उत्पत्तिकी लीला, कभी स्थितिकी लीला और कभी संहारकी लीला करते हैं।
यह सब संसार स्वरूपसे तो भगवान्का ही रूप है और इसमें जो परिवर्तन होता है, वह सब भगवान्की ही लीला है -- इस तरह भगवान् और उनकी लीलाको देखते हुए भक्तको हरदम प्रसन्न रहना चाहिये। मार्मिक बात सब कुछ परमात्मा ही है -- इस बातको खूब गहरा उतरकर समझनेसे साधकको इसका यथार्थ अनुभव हो जाता है। यथार्थ अनुभव होनेकी कसौटी यह है कि अगर उसकी कोई प्रशंसा करे कि आपका सिद्धान्त बहुत अच्छा है आदि, तो उसको अपनेमें बड़प्पनका
अनुभव नहीं होना चाहिये। संसारमें कोई आदर करे या निरादर -- इसका भी साधकपर असर नहीं होना चाहिये। अगर कोई कह दे कि संसार नहीं है और परमात्मा हैं -- यह तो आपकी कोरी कल्पना है और कुछ नहीं आदि, तो ऐसी काटछाटँसे साधकको किञ्चिन्मात्र भी बुरा नहीं लगना चाहिये। उस बातको सिद्ध करनेके लिये दृष्टान्त देनेकी, प्रमाण खोजनेकी इच्छा ही नहीं होनी चाहिये और कभी भी ऐसा भाव नहीं होना चाहिये कि यह हमारा सिद्धान्त है, यह
हमारी मान्यता है, इसको हमने ठीक समझा है आदि। अपने सिद्धान्तके विरुद्ध कोई कितना ही विवेचन करे, तो भी अपने सिद्धान्तमें किसी कमीका अनुभव नहीं होना चाहिये और अपनेमें कोई विकार भी पैदा नहीं होना चाहिये। अपना यथार्थ अनुभव स्वाभाविकरूपसे सदासर्वदा अटल और अखण्डरूपसे बना रहना चाहिये। इसके विषयमें साधकको कभी सोचना ही नहीं पड़े। सम्बन्ध--अब भगवान् पीछेके दो श्लोकोंमें कही हुई बातोंको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं।