।।11.25।।

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि। दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.25।।

danṣhṭrā-karālāni cha te mukhāni dṛiṣhṭvaiva kālānala-sannibhāni diśho na jāne na labhe cha śharma prasīda deveśha jagan-nivāsa

danṣhṭrā—teeth; karālāni—terrible; cha—and; te—your; mukhāni—mouths; dṛiṣhṭvā—having seen; eva—indeed; kāla-anala—the fire of annihilation; sannibhāni—resembling; diśhaḥ—the directions; na—not; jāne—know; na—not; labhe—I obtain; cha—and; śharma—peace; prasīda—have mercy; deva-īśha—The Lord of lords; jagat-nivāsa—The shelter of the universe

अनुवाद

।।11.25।। आपके प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित और दाढ़ोंके कारण विकराल (भयानक) मुखोंको देखकर मुझे न तो दिशाओंका ज्ञान हो रहा है और न शान्ति ही मिल रही है। इसलिये हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये।

टीका

।।11.25।। व्याख्या--'दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि'-- महाप्रलयके समय सम्पूर्ण त्रिलोकीको भस्म करनेवाली जो अग्नि प्रकट होती है? उसे संवर्तक अथवा कालाग्नि कहते हैं। उस कालाग्निके समान आपके मुख है, जो भयंकर-भयंकर दाढ़ोंके कारण बहुत विकराल हो रहे हैं। उनको देखनेमात्रसे ही बड़ा भय लग रहा है। अगर उनका कार्य देखा जाय तो उसके सामने किसीका टिकना ही मुश्किल है। 'दिशो न जाने न लभे च

शर्म'-- ऐसे विकराल मुखोंको देखकर मुझे दिशाओंका भी ज्ञान नहीं हो रहा है। इसका तात्पर्य है कि दिशाओंका ज्ञान होता है सूर्यके उदय और अस्त होनेसे। पर वह सूर्य तो आपके नेत्रोंकी जगह है अर्थात् वह तो आपके विराट्रूपके अन्तर्गत आ गया है। इसके सिवाय आपके चारों ओर महान् प्रज्वलित प्रकाश-ही-प्रकाश दीख रहा है (11। 12), जिसका न उदय और न अस्त हो रहा है। इसलिये मेरेको दिशाओंका ज्ञान नहीं हो रहा है और विकराल मुखोंको

देखकर भयके कारण मैं किसी तरहका सुख और शान्ति भी प्राप्त नहीं कर रहा हूँ।'प्रसीद देवेश जगन्निवास'--आप सब देवताओंके मालिक हैं और सम्पूर्ण संसार आपमें ही निवास कर रहा है। अतः कोई भी देवता, मनुष्य भयभीत होनेपर आपको ही तो पुकारेगा! आपके सिवाय और किसको पुकारेगा? तथा और कौन सुनेगा? इसलिये मैं भी आपको पुकारकर कह रहा हूँ कि हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये।भगवान्के विकराल रूपको देखकर अर्जुनको ऐसा

लगा कि भगवान् मानो बड़े क्रोधमें आये हुए हैं। इस भावनाको लेकर ही भयभीत अर्जुन भगवान्से प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना कर रहे हैं।  सम्बन्ध --अब अर्जुन आगेके दो श्लोकोंमें मुख्य-मुख्य योद्धाओंका विराट्रूपमें प्रवेश होनेका वर्णन करते हैं।